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जनवरी, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

The Silent Indian National Anthem

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अपने हिस्से का नूर

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कुछ दिनों पहले अपने अंग्रेजी ब्लॉग पर एक लेख के द्वारा मैंने कुछ प्रशन उठाये थे, जिनका उत्तर भूषण सर  ने बड़ी खूबी से दिया, जिसे आप यहाँ देख सकते हैं. उनके उसी उत्तर से प्रेरित होकर ये कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं, इस उम्मीद के साथ के आम आदमी के पास एक बार फिर ये सन्देश पहुंचे की वो ही ख़ास आदमी है और उसे किसी चालाक सियार के बहकावे में आने कोई ज़रुरत नहीं है. उसके सीधेपन में ही इंसानियत और खुदाई की रिहाइश है. ऐ इंसान, थम के टटोल तो ज़रा, देख, वो रौशनी, वो खुशबु, तुझी में है कहीं  वो अँधेरे जो आते हैं उजाले की शकल में,  तेरे दिल की आवाज़ दबा ना दें कहीं सियासत और ताकत जिनकी चाहत है, मासूमों का लहू बहाना उनकी आदत है, भूल जातें हैं की उनसे बड़ा भी एक है, यह दुनिया जिसकी अमानत है अभी भी वक़्त है सजदे में सर झुका दें यहीं   ऐ खुदा, आम आदमी को बना दे ख़ास, तेरा हर बन्दा अपनी अजमत पे कर सके नाज़, हर एक लिये है अपने हिस्से का नूर , खोल दे ये दिलवालों पे राज़ महसूस करें तुझे दिल में, औरों पीछे भागें नहीं आओ, उस नूर के उजाले में ढूंढे रास्ता अपना, हमदिली जिस डगर हो, वो बने रास्ता अपना, सख्त

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.....

Paagalpan - Shafqat Amanat Ali - Tabeer

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बेटू, चलते रहना होगा तुम्हें

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ये सन्देश मेरे बेटे के लिये है. अभी छोटा सा है, हर बात नहीं समझता. कल मैं रहूँ ना रहूँ, मेरी अपेक्षा इस सन्देश के द्वारा उस तक अवश्य पहुंचेगी.... चलोगे तो गिरोगे भी, मगर हर चोट का दर्द सहना होगा तुम्हें, हर बार उठना होगा,  और चलते रहना होगा तुम्हें, निराशा और थकावट के पत्थरों पर विजयी होकर, स्वच्छ नदी सा अविरल बहना होगा तुम्हें  अश्रु रोके नहीं, प्रवाह में वृद्धि करें सदैव  हर बूँद को उर्जा में बदलना होगा तुम्हें रुकोगे नहीं जब तक ना छू लो अपने लक्ष्य को, हर बाधा से यह कहना होगा तुम्हें  मेहनत, अनुशासन और  सच्चाई तुम्हारे परममित्र हों, हर मुश्किल का सामना इनके बल पर करना होगा तुम्हें  कल्पना के पंखों पे उड़ना,  सपने देखना,  मगर उन्हें पूरा करने को धरातल पे चलना होगा तुम्हें   पेड़-पौधों, चिड़िया और जानवरों पे दया रखना, अपने हिस्से की प्रकृति का संरक्षण करना होगा तुम्हें दूसरों से प्रतिस्पर्धा में समय और ऊर्जा मत गंवाना अपने आप से ही मुकाबला करना होगा तुम्हें  जब पथ में आए संसार की कुरूपता, क्षमा  और  करूणा से उसे सुंदर बनाना होगा तुम्हें ना सुनना अगर कोई बहका

इल्म की रस्साकशी

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कभी चोट यूँ लगती है की नफरत हो जाती है, बात यूँ बढती है की रिश्तों में गफलत हो जाती है चलिए, दर्द के पार, माफ़ी के पास चलें नफरत के दमन के लिये आप सही हैं, आप जानते हैं, वो सही हैं, वो मानते हैं, इल्म की रस्साकशी कितनी खिंच जाती है, ये सब जानते हैं, आइये, मोहब्बत के डोरे  से  बाँध लें अपने-परायों को, इल्म का इस्तेमाल हो अमन के लिये  सही है के समझाना ज़रूरी है, मगर क्या मामला इतना उलझाना ज़रूरी है? प्यार-ओ-इज्ज़त से कही मुख़्तसर सी बात मोअस्सर है यकीन-ऐ-मन के लिये ईमान इंसान का, खुदा का फज़ल-ओ-रहम है इसमें इंसानी काबलियत सिर्फ एक वहम है, जब चाहेगा बुला लेगा जिसे चाहे वो नमन के लिये

इंसानियत की ज़मानत की जाए

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कश्मीर मसला हो या इजराइल-फिलिस्तीन की खुनी जंग या फिर इराक और अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे युद्ध या फिर अफ्रीका में नरसंहार, हर तरफ दर्द ही दर्द है. क्यूँ कोई इनका हल नहीं ढूंढ पाता? या फिर हम ढूंढना ही नहीं चाहते? और सबसे बड़ी बात की हम खुद कितने ज़िम्मेदार हैं इन मसलों को बढावा देने के लिये या अपनी कौम, अपने धर्म, अपनी जिद्द के आगे दूसरों के जज़बातों को ना समझने के लिये?  क्या ये सच नहीं की हममे से एक-एक ज़िम्मेदार है अपने चारों तरफ के माहोल के लिये? हममें से कितने लोग अपने आसपास अमन की बहाली की कोशिश करते हैं, अमन और प्यार की मिसाल बनने की कोशिश करते हैं? हमारी छोटी-छोटी दुनिया ही तो बड़ी दुनिया बनाती हैं. यह दुनिया बेचारी तो हम इंसानों से ही अपनी पहचान बनाती है  दुनिया की क्या औकात है जो उससे शिकायत की जाए, अपनी नासमझी और खुदगर्ज़ी है की जिनसे बगावत की जाए  खुद ही मुसलसल दर्द देतें हैं खुद को, इस फ़िराक में के उनके दर्द में मुनाफिअत की जाए  कभी रोके ज़ख्म-ऐ-माज़ी, कभी झिझक तो कभी गुरूर     कैसे इब्तिदा-ऐ-अमन की वकालत की जाए  इतना जज़्बा के बदल जाता है वेह्शत में, ऐसे में, किस तरह द