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ऊँचाई

अक्सर हवाईजहाज़ की खिड़की से, कोशिश करती हूँ, नीचे ज़मीन पे ढून्ढ सकूँ, कहाँ एक देश की सीमा ख़त्म हुई, कहाँ दुसरे की शुरू, सरहदें कुछ ठीक से दिखाई नहीं दीं कभी, जब कोई शहर सा नज़र आता है, घरों में कोई फ़र्क़ नहीं दिखता, कौन सा हिन्दू का है या   कौन सा मुस्लिम का, जानती हूँ, समझती हूँ, वहाँ नीचे, सरहदें हैं, हिन्दू और मुस्लिम के घर भी  अलग-अलग से दिखते होंगे, मगर इस ऊँचाई कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं दिखता, नदियाँ, पहाड़, वादियां,  ख़ाली ज़मीन या फिर उस पर बनी  सड़के और बिल्डिंगें दिखती हैं, और कभी-कभी तो कुछ भी नहीं दिखता, बादल सब छुपा देतें हैं, लगता है यह बादल भी इतने फ़र्क़ देख नहीं पाते, तभी तो बरसते हैं सब पर, हिन्दू के लिए सोम और  मुस्लिम के लिए जुम्मे का इंतज़ार नहीं करते।  फिर सोचती हूँ, इतनी सी ऊँचाई से, ज़मीनी फ़र्क़ इतने फ़ीके हो जाते हैं तो, वो जो सबसे ऊँचा है, उसे कितने फ़र्क़ नज़र आते होंगे, और कौन-कौन से फ़र्क़ों पे वो तवज्जो देता होगा, किसके घर में कौनसी