संदेश

अप्रैल, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दिल्ली, सर चढ़ा है तेरा जादू

चित्र
मुसलसल हलकी-हलकी हुड़क है, तेरी सम्त जाती मेरी हर सड़क है, मेरी कायनात का मरकज़ है तू आरज़ू शब-ओ-रोज़ है तेरी, तू माशूका नहीं, कोई नशा नहीं, ये तिश्नगी क्या, ये तलब क्यों? मेरे लफ़्ज़ों में तेरी रूह, मेरे ख्यालों में तेरी ख़ुशबू , तेरे असर के बिना मैं क्या हूँ? तेरी धुप की मिठास और थी, उन सर्द रातों की बात और थी, यहाँ हवाओँ में कहाँ वो जुस्तजू! खुला आसमाँ है मेरा क़ैदख़ाना, मेरी आरज़ू सरज़मीं से जुड़ जाना, मैं बेबस आज़ादी की क़ैद में हूँ, यह ज़मीं ज़रखेज़ सही, मगर है तो गैर मिटटी ही, मैं इसमें अपनी हस्ती कैसे ढूँढू? एक ख़्वाहिश भिनभिनाती रहती है, चल वापस चल, दोहराती रहती है, दिल्ली, यूँ सर चढ़ा है तेरा जादू 

दूर चले गए

मेरा नाम जपते-जपते, वो मुझसे दूर चले गए, मुझे अपनी पसंद में ढालते -ढालते  मेरे वजूद से दूर चले गए... मुझे बेचते-बेचते, वो कहाँ से कहाँ चले गए, मैं यहाँ इंतज़ार में हूँ उनके, जो घर से मेरे दूर चले गए... मेरी मुहोब्बत बांधते-बांधते, मज़हबी नामों-ओ-इमारतों में, वो आज़ादी-ए -मुआफ़ी से बहोत होते दूर चले गए... मैं आवाज़ देते-देते, थक गया हूँ उन्हें, मेरे नाम से जो बुलाते हैं दूसरों को, वो ख़ुद क्यों मुझसे दूर चले गए? शायद मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते, मेरी पहचान ही भूल गए, मैं तो सबका हूँ, सब मेरे, वो मेरी सच्चाई से दूर चले गए....!