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हिंदी उर्दू के पंख

माना बंद हैं दरवाज़े समय के, लफ़्ज़ों के झरोखों से उड़ उड़ जाऊं मैं, रोक सके तो दिखा रोक के, ऐ परदेस मुझे, हिंदी उर्दू के पंख लगा के उड़ उड़ जाऊं मैं, बातचीत के बीच उड़ जाऊं, मन ही मन मुस्का उड़ जाऊं, सबको चकमा देके उड़ उड़ जाऊं मैं  तबले की ताल पे उड़ जाऊं, सितार को ढाल बना के उड़ जाऊं, बांसूरी की धुन पे, उड़ उड़ जाऊं मैं गोल-गप्पों की याद में उड़ जाऊं, इमली का खट्ठा स्वाद लिए उड़ जाऊं, साथ तड़के के धुएँ के,  उड़ उड़ जाऊं मैं शेरों से बुने कालीन पे उड़ जाऊं, यूँ परदेसी ज़मीन से उड़ जाऊं, ख्यालों की बाँह पकड़े, उड़ उड़ जाऊं मैं मेहँदी से नक्शा बना के उड़ जाऊं, चूड़ियों के सितारों में उड़ जाऊं, भाई की सूरत देख चाँद में, उड़ उड़ जाऊं मैं सपनों की सिड़ी बना के उड़ जाऊं, ख्वाहीशों के पीछे-पीछे उड़ जाऊं, दुआ का आँचल थामे, उड़ उड़ जाऊं मैं

मैं भी हिंदुस्तान हूँ

अगर हर हिन्दुस्तानी को कम-से-कम एक साल के लिए हिंदुस्तान से दूर रहने का मौका मिले, ख़ासकर उन्हें जो अक्सर अपने देश की आलोचना किया करते हैं तो शायद उन्हें अपने देश और इस देश में जन्म लेने की सही कीमत पता लग सके. हाँ, गरीबी है, भ्रष्टाचार भी है, पर यह सब कहाँ नही है?  नहीं है तो देश की मिटटी की खुशबू नहीं है, बस स्टैंड के पास चाय की दूकान पे रेडियो पे बजते हिंदी फिल्मों के गाने नहीं हैं, घर में किसी भी समय आने वाले मेहमान नहीं हैं, वो पड़ोसी नहीं हैं जिनसे ज़रुरत पड़ने पर चाय की पत्ती मांगी जा सके और बड़ों के वो अनगिनत हाथ नहीं हैं जो सर छू कर दुआ देते नहीं थकते… जब चाह कर भी लौट न पाएँ तो नाले के पानी की बदबू की याद भी अच्छी लगने लगती है. शायद इसलिए क्यूंकी वहां से गुज़रते हुए सहेली हमेशा साथ होती थी और साथ होती थी हंसी और मस्ती! हर याद दिल के और करीब आ जाती है. जो रिश्ते टूट गए, उनके टूटने की आवाज़ और ज़ोर से गूंजने लगती है, और जो रिश्ते जिंदा हैं उन्हें बरक़रार रखने की लौ ज़रा और तेज़ हो जाती है. कभी रोटी, कभी पैसा, कभी ख्याति, कभी कोई और मजबूरी, अपनी मिटटी से दूर ले

ढक्कन :-)

यह रचना उन मुट्ठीभर प्रियजनों के लिए है जो अभी भी धर्म या जाती के नाम पर अपने आपको दूसरों से ऊँचा समझने की भूल करते हैं… मगर हम यह भी जानते हैं की रूठ कर तो कोई भी खुश नहीं रहता… बस इन ढक्कनों का ढक्कन खोलने की ज़रुरत है :-)  वो एक ही है, कब से जानते हैं, फिर भी झूटों उसे बांटते हैं, ये सब जानते हैं  दिल दुखता है उसका,  जब लड़ते हैं नाम लेके उसका हम सब ये जानते हैं  बेवकूफ़ी है, जहालत है, वजह-ऐ-फर्क-ऐ-ईमान से जो बिगड़ी हालत है  आप भी जानते हैं  किसी दिन खुदा की जो सुन लेते, दीन-ईमान में भाईचारा वो बुन लेते हम ये मानते हैं  इनाम मुहब्बत-ओ-क़ुरबानी का बड़ा होता है, सजा से मुआफी देने वाला बड़ा होता है, बच्चे भी जानते हैं  थकते नहीं हैं, ऊँगली उठा उठाके? खुद भी गिरते हैं, उन्हें गिरा गिराके, क्यूँ नहीं मानते हैं? दिल को भाते हैं बच्चे मिलके खेलते हुए, सुलह की कसक उठती है उन्हें देखते हुए, हम यह जानते हैं :-) नाराज़गी का ढक्कन प्यार का बहाव रोक देता है इंसान को उसका ही 'मैं' रोक देता है, आखिर इस 'मैं' की क्यूँ

कौन कौन हूँ मैं?

अक्सर सोचती हूँ, क्या थी, कैसी हूँ अब, क्या ऐसी ही रहूंगी आने वाले कल में… क्यों मेरे संगी साथी इतने अलग-अलग हैं, डरती हूँ अपने अस्तित्व के लिए मगर चलती चली जाती हूँ विभिनता की ओर और समेटती रहती हूँ विभिनता अपने अन्दर… फिर याद आता है की वो भी तो अलग-अलग रंग में रिझाता है दुनिया को… साहस से भर जाती हूँ तब… शायद इस विभिनता में उस 'एक' से मिल जाऊं एक दिन…. कितनी सारी हूँ मैं, कौन कौन हूँ मैं? सच हूँ, कभी झूठ, कभी मौन हूँ मैं कुछ अपना सा हर जगह मिल जाता है मन मेरा हर जगह घुलमिल जाता है कैसे कहूँ, कौन हूँ मैं? अपनी जड़ों से जुड़ी रहना चाहती हूँ, असीम समीर सी बहना चाहती हूँ, आवारगी या बंधन हूँ , कौन हूँ मैं? खुदा की मुहब्बत में मज़हब से भागती हूँ, कभी डर के तो कभी दलेरी से भागती हूँ, कायर या इमानदार हूँ, कौन हूँ मैं? रिश्ते बना लेती हूँ कोई मुल्क हो, कोई तहज़ीब, वो अमल में जुदा सही, दिल के कितने क़रीब, अजीब या मुनासिब हूँ, कौन हूँ मैं? मुख्तलिफ माहोल में रम जाती हूँ, बचपन की यादें भूला नहीं पाती हूँ, माज़ी हूँ या आज हूँ, कौन हूँ मैं? कभी बहन हूँ अफ्रीकन की,

मम्मी

मम्मी के लिए कुछ मुक्कमल लिखना नामुमकिन है... कहीं न कहीं कोई न कोई कमी रह ही जाएगी... कुछ कहने की कोशिश करूँ भी तो कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ ख़त्म, यह नहीं पता... शुरुआत कुछ सवालों से कर रही हूँ.... उसी से पूछ कर... तुम्हारे बारे में क्या लिखूं? तुम्हारी डांट या मोहब्बत लिखूं? वो मार लिखूं जो अब तक राह दिखाती है, या मार के बाद रोते हुए गले लगाने की आदत लिखूं? बच्चों के साथ तुम्हारा प्यार लिखूं, या बुजुर्गों की खिदमत लिखूं? तुम्हारे हाथ की अरहर की दाल या पौधीने की चटनी, या फिर ज़िन्दगी में तुमसे बढती लज्ज़त लिखूं? बरकतों की पोटली लिखूं, या कुदरत की इनायत लिखूं? तुम्हारी सादगी लिखूं, या उस सादगी में छिपी तुम्हारी ताकत लिखूं? चालीस साल के हमसफ़र के जाने का ग़म लिखूं या उसके चले जाने के बाद तुम्हारी हिम्मत लिखूं? बेदाग़ आँचल सी उम्र लिखूं, या ज़िन्दगी भर की इबादत लिखूं? आई लिखूं, मम्मी लिखूं, प्यारी माँ लिखूं, या बस खुदा की सूरत लिखूं?  Posted on 'Pyari Maa' Tuesday, February 22, 2011 ( http://pyarimaan.blogspot.com/2011/02/blog-post_8459.html )

आओ, सभी हाथ बढाएँ!

पिछले दस सालों में मुझे दुनिया के कई देशों में काम करने का मौका मिला. तरह तरह की चीज़े देखीं, अलग-अलग संस्कृति देखी. मगर कोई भी देश हो, कोई भी संस्कृति, गरीबी की मार जिस पे पड़ती है, उसके चेहरे पे वही मजबूरी, वही  उदासी देखी. मगर जब भी उनके साथ काम किया, थोड़े में ज़िन्दगी जीने की नसीहत पाई, दुआएं पायीं. हम सब जानते हैं की दुनिया की अधिकतर समस्याओं की जड़ गरीबी है मगर फिर भी गरीबी को जड़ से ख़त्म करने में हम असमर्थ रहे हैं… मान लेते हैं की हम सारी दुनिया की गरीबी ख़त्म नहीं कर सकते मगर हम अपने आसपास की गरीबी को ज़रूर आड़े हाथों ले सकते हैं… चलिए, फिर देर किस बात की है? :-) गरीबी को कैसे हराएँ? आओ, सभी हाथ बढाएँ! भीख को मदद में बदल सकें तो बात बने आओ, फैली हथेली को सहारा देकर उठाएं अनपढ़ हैं, अयोग्य नहीं, आओ, मिलके हर एक को पढ़ाएं क, ख, ग, में मन नहीं लगता, कोई बात नहीं, पढ़ाई नहीं तो कोई हुनर सिखलाएँ देखो, वो थक गएँ अकेले बोझ उठा उठाके, आओ, गरीबी के खिलाफ मिलके जुट जाएं कब तक आँख चुराएँगे उन भूखी आँखों से? आओ, अब रोटी बाँट के खाएँ गरीबी पे ग़ालिब होने का एक ही तरी

मेरे बेटे

तू नज़र आता है, तो हर ग़म कमतर नज़र आता है,   मेरे छोटे से फ़रिश्ते, तेरे चेहरे पे, खुदा का नूर नज़र आता है    तेरी मासूमियत से बढकर कुछ नहीं, तेरा भोलापन हर शै से बेहतर नज़र आता है   तेरी हंसती आँखों में बसती है मेरी दुनिया जहां हर सू प्यार ही प्यार नज़र आता है    तुझे ज़रा कुछ हो जाए तो थम जाती है ज़िन्दगी, तेरी शरारतों में मुक्कमल मेरा संसार नज़र आता है    सोचती हूँ जो भूल गया ये दिन तू बड़े हो कर, फरमान-ऐ-मौत सा तेरा इनकार नज़र आता है   देखा है उस माँ को जो अपनी औलाद से जुदा हुई  उसका कलेजा कतरा-कतरा, ज़ार-ज़ार नज़र आता है    ये दुआ है तेरे लिये, जो देखे तुझे वो कहे, खुदा का अक्स तेरे चेहरे पर नज़र आता है    औरत हूँ कई रिश्ते और रस्में निभाती हूँ, मगर सबसे खूबसूरत माँ का किरदार नज़र आता है    'प्यारी माँ' पर जनवरी १२, २०११ को प्रकाशित ( http://pyarimaan.blogspot.com/2011/01/blog-post_12.हटमल )

मेरी खुदगर्ज़ी

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So the other day, as we were finishing supper, my husband asked me if I wanted to know how I looked. After a tiring day at work and being at the road for an hour, I knew I looked tired and shabby. I smiled and hoped he wouldn’t tell me what he thought. However, he got up and went to our backyard and brought a beautiful rose and said, “You look like this”. Photo by Joe Prewitt ऐसे हमसफ़र के लिए, यह एहसास-ओ-लफ्ज़ खुद-ब-खुद उभर आते हैं... होठों पे तेरे लिये दुआ होती है  मेरी खुदगर्ज़ी यूँ बयाँ होती है तेरी खैरियत है मेरा खज़ाना तेरी मुस्कराहट मेरी ख़ुशी का निशाँ होती है जब-जब तेरे क़दमों के निशाँ साथ नहीं होते मंजिल पे पहुँच के भी मंजिल हासिल कहाँ होती है चाँद आ जाए हाथ या मुट्ठी में हो ख़ाक तेरे होने से हर हक़ीकत एक दिलचस्प दास्ताँ होती है उसकी रहमत और तेरा साथ काफी है फिर कोई फिक्र हो, बस लम्हों में फ़ना होती है सालों का साथ है फिर भी, जब-जब नज़र मिलती है मोहब्बत एक बार और जवाँ होती है

अजय

मित्रता दिवस की सभी को शुभकामनाएं!  यह पंक्तियाँ उस भाई के लिए हैं जो दूर तो है पर दिल के बहोत करीब है, परेशान तो है मगर जीत उसकी मुट्ठी में है :-)  जब हाथ बढ़ा के छू न पाऊँ, कैसे तेरा दर्द सहलाऊँ? जब वक़्त-ओ-हालात इजाज़त न दे, कैसे तुझे मिलने आऊँ? तू है दूर, तेरा दर्द इतने करीब, तेरी आह सुनु पर तुझे देख न पाऊँ वो आंसूं जो शायद गिरते ही नहीं, कैसे उन्हें पोंछ पाऊँ? कैसे कहूँ की मैं हूँ, छोटे मुँह, बड़ी बात कैसे कर जाऊं? फज़ल-ओ-रहम हो उसका तुझ पर यूँ दुआ में झुक जाऊं  मुश्किलों से तो दोस्ती है तेरी, खुद को याद दिलाऊँ, तेरी हँसी जो हर ग़म जीत ले   याद कर मुस्कुराऊँ  दर्द है पर हार नहीं, तेरी हिम्मत पे वारि जाऊं  तू अजय है, अजय ही रहेगा मन में यही दोहराऊँ 
मिलावट के ज़माने में हम पीछे  रहें  क्यूँ  उम्मीद मायूसी में मिला ली हमने  बेईमानी का चलन अपनाया इस अदा से  मुस्कराहट ग़म में मिला ली हमने  गुस्से में  जो  नफरत घोलते हैं, घोला करें, माफ़ी शिकायत में मिला ली हमने 

मोहब्बत

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कहते हैं एक बार होती है किसी एक से होती है दिल में हो मोहब्बत तो  हर एक से होती है मोहब्बत भरी ज़िन्दगी  गंगा सी होती है  जहां-जहां बहती है सबको भिगोती है  वाद-विवाद की होती है, रूठने मानने की होती है मोहब्बत भरे रिश्तों में जगह इन सब की होती है मज़बूत रिश्तों को जो बांधे  वो डोर ज़रा कच्ची होती है कभी-कभी सौ झूठ में छिपी  मोहब्बत भी सच्ची होती है  जब ईंट का जवाब मोहब्बत होती है  तब ज़िन्दगी इश्वर के  बड़े करीब होती है   मोहब्बत जब  दिल की मल्लिका होती है, ज़िन्दगी जीने का  सुनहरा सलीका होती है  फोटोस: गूगल आभार 

दुआ

इतना ऊँचा उठा मुझे के तेरे क़दमों में जगह मिल जाए 

आओ

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"चलो मिलके इन टुकड़ों में, सांझी बुनियाद ढूंढे, खुले आकाश के नीचे पुराने रिश्तों की वो हर एक याद ढूंढे  गलतियां-कमीयां आम हो गयीं  आओ, कुछ ख़ास ढूंढे सूखे पत्तों की तरह क्यूँ बिखर जाएं? शाख़ से तोड़ दें नाता  तो किधर जाएं? जो टूटने लगी है वो आस ढूंढे  एक-एक घर उठा के, स्नेह की सिलाई पे, बुन लेते हैं एक नया पहनावा माफ़ी और भलाई से नयी शुरुआत के लिये  एक नया लिबास ढूंढे फर्क ही नहीं होता हममें गर तो लज्ज़त कहाँ से आती? सरगम कैसे सजती, ये रंगत कहाँ से आती? चलो, इन्ही फ़र्कों में कहीं, एक से एहसास ढूंढे  एक दुसरे की ज़रूरतों को समझने की ज़रुरत है जो लाते है वापस, उन रास्तों पे  चलने की ज़रुरत है  आओ हम हंसी-ख़ुशी की पोटलियाँ  अपने आस-पास ढूंढे"  तस्वीरें: गूगल आभार

बड़ा वक़्त हो गया

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सभी को ब्लॉग पे आने के लिए धन्यवाद और शुक्रिया.... जब कुछ दिन कोई नहीं आया बड़ा अजीब लगा... ये नए रिश्ते दिल में जगह बना चुकें है अब पता लगा.... यह रचना मेरे छोटे से (उम्र से तो २८ साल का है पर लगता मेरे बेटे जैसा ही है), बहुत प्यारे से भाई के लिए लिखी है, वो दिल्ली में रहता है और उससे मिले करीब ढाई साल हो गए हैं... मेरे दो भाई हैं एक बड़ा और एक छोटा, इश्वर करे सब को ऐसे भाई मिलें शानू के हाथों में तेरे हाथ नज़र आते हैं, मगर तेरे हाथों को हाथ में लिए बड़ा वक़्त हो गया स्काइप पे तुझे देख-सुन लेती हूँ, पर  तुझे गले से लगाए बड़ा वक़्त हो गया  कोई ख़ास बात होती है तो ही बात होती है,  घंटों यूँ ही साथ बिताए बड़ा वक़्त हो गया हाँ, हम बड़े हो गए, पर क्या रास्ते इतने जुदा हो गए? दो कदम  साथ  चले बड़ा वक़्त हो गया  बारिश में भागते हुओं को  छेड़ने में कितना मज़ा आता था साथ मिलके कोई शैतानी किये बड़ा वक़्त हो गया  इतना प्यार और आदर देता है की संभाले नहीं संभालता, पिद्दी सी बात पे झगड़ा किये बड़ा वक़्त हो गया :-) दिल ही दिल में तो हो आती हूँ दिल्ली अक्सर  सात समंदर का सफ़र तय किये बड़

खट्टी-मिट्ठी गुड़िया

जानती हूँ की उपरी खूबसूरती फानी है, फिर भी शीशे में खुद को निहारती हूँ जहाँ दास्ताँ-ए-ज़िन्दगी लिखी जा रही है, चेहरे की उन लकीरों से घबराती हूँ पता है के यह हीरे-मोती नहीं हैं मेरी दौलत, मगर फिर भी इनसे दिल लगाती हूँ  न काली हूँ, न गोरी हूँ, अपने भूरेपन पे इतराती हूँ तमाम गुनाहों के बाद भी जो जिंदा है, उस मासूमियत पे चकराती हूँ  सच्चाई है बुनियाद मेरी ज़िन्दगी की, मगर  कभी-कभी मुस्कराहट में उसे छिपाती हूँ  हार जाती हूँ लाखों-करोड़ों के दुःख के आगे, किसी एक दिल को छुलूँ तो मुस्कुराती हूँ लफ़्ज़ों में बुन लेती हूँ दिल की गहराइयों को, यूँ इज़हार-ऐ-एहसास कर पाती हूँ  न मुकम्मल मैं हूँ न ज़िन्दगी है, उसके रहम-ओ--करम पे जीती जाती हूँ

इंतज़ार, अँधेरा और अकेलापन

आज कुछ फर्क तर्ज़ पे लिखा है... बड़े दिन से कोई ब्लॉग पे नहीं आता... आतें भी हैं तो बिना कुछ कहे चले जाते हैं... आप सब की कमी को यहाँ लफ़्ज़ों में बुन दिया... कभी महफ़िल हुआ करती थी यहाँ, अब सब है धुआं-धुआं, इंतज़ार, अँधेरा और अकेलापन बसता है अब यहाँ  किसी की आहट, कोई दस्तक, किसी का आना, कहाँ होता है अब यहाँ शायद इस कुँए में वो मिठास ही नहीं रही   के कोई प्यासा रुकता यहाँ  बस बेरंग पर्दों से खेलती है हवा आजकल, शमा कहाँ जलती है अब यहाँ साज़ खामोश ही रहते हैं अक्सर, मोसिक़ी-ए-ख़ामोशी बजती है अब यहाँ  सब कद्रदान हो गए रुख्सत रफ्ता-रफ्ता उम्मीद फिर भी घर बनाये बैठी है यहाँ  वो गलीचे-ओ-कालीन तो फ़ना हो गए आनेवालों के लिए नज़रें आज भी बिछीं हैं यहाँ 

???

जवाबों की भीड़ में उलझे हुए सवाल हैं, ज़िन्दगी का मतलब क्या है? खुदा किस मज़हब की जागीर है? असल बन्दगी का मतलब क्या है? गर खुदा मोहब्बत है तो आखिर  मोहब्बत का मतलब क्या है?

दो जहाँ का फासला

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किसी चेहरे में कभी किसी शेर में, कभी ख्वाब में मिल जाते हो मगर मिलके भी नहीं मिलते अब तुम, कहाँ से आते हो, किधर चले जाते हो?  सोचती हूँ तुम्हें तो उलझती चली जाती हूँ वो भी कुछ नहीं कहता, तुम भी नहीं बताते हो दो जहाँ का फासला और सफ़र मुश्किल, फिर भी रोज़ यादों में चले आते  हो खुली आँखों की सच्चाई कुछ भी हो , बंद आँखों में अक्सर मुस्कुराते हो  लफ़्ज़ों में बुन लेती हूँ तुम्हारी यादों को, मुझे शायरी का दुशाला उड़ा जाते हो  Google
अब मज़हबी बातों में दिल नहीं लगता,  तू दूर हो गया है या करीब आ गया है?

Good Morning :-)

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उठते ही वही दो-चार काम करता है, भूख लगे तो मीठा या नमकीन ढूँढता है, दुनिया के किसी कोने में हो या किसी जामे में  हर इंसान थक कर सो जाता है, प्यासे को पानी याद आता है, जब गुज़र जाए तो बचपन याद आता है, काइनात में कहीं बसेरा हो जाए, वो पहला घर याद आता है  आँखों में वही खारा पानी भर आता है, जब दिल का गम हद से बड़ जाता है कोई मज़हब हो या कोई ज़बान ख़ुशी में हर कोई मुस्कुराता है ज़ख्म ज़रा गहरा हो तो सुर्ख़ हो जाता है  आहट-ऐ-महबूब पे हर दिल ठिटक जाता है  फ़ारसी बोले या फ़्रांसिसी, धूप में ठहर जाए तो पसीने में भीग जाता है    मगर इंसान यह सब भूल जाता है  जब अपनों ही पे जोर आज़माता है, छोटे-छोटे बे-मतलब के फ़र्कों में कभी बेख़बरी तो कभी मक्कारी छिपाता है  बेवकूफी की हद से गुज़र जाता है, जब खुदा को अपनी जागीर समझ लेता है और वो है की फिर भी माफ़ कर देता है, हर दस्तक पे दरवाज़ा खोल देता है  समझदार को इशारा काफी होता है, जब जागो तभी सवेरा होता है   माफ़ी और प्यार भरे दिल से देखें  तो सिर्फ समानता का एहसास होता है  फोटो: गूगल 

दिल

जब दिल दुखी होता है, तो बड़ा बुरा लगता है, दिल करता है दिल को हाथ में लेके सहलाऊँ, प्यार से कहूँ, 'सब्र कर' दर्द हल्का हो जाएगा  फिर धीरे-धीरे थपकाऊँ, सुला दूँ थोड़ी देर अपनी हथेली पर, मगर सीने में नहीं सोता  तो हथेली पे सो पाएगा, पता नहीं, शायद कोई मरहम हो जो लगा दूँ इसे,  बड़ा अँधेरा है इन दिनों इसमें रौशनी में ले जाऊं इसे,  ले जाऊं  उसके पास, रख दूँ उसके पैरों में, कहूँ, छुले इसे,  पूछूं, यह दर्द मुझसे तो कम नहीं होता, तू कर पाएगा? फिर याद आया उसने कहा था "मोहब्बत के पेड़ पर दर्द के फल लगते हैं मेरे दिल में भी बहुत दर्द है, इस जहाँ का,  हर इन्सां का, जब भी कोई आंसू कहीं गिरता है, मेरा दिल भी रोता है" अब सोच रही हूँ, पहले अपना दिल सहलाऊँ, या उसका?

ज़िन्दगी साँस लेती है

पिछले दिनों इतनी तबाही देखी की दिल दहल गया, कुदरत ने अपना तांडव एक बार फिर दिखाया और मौत ज़िन्दगी पे ग़ालिब होती नज़र आई, मगर ज़िन्दगी तो उस की अमानत है, वो है तो ज़िन्दगी है... यानि हमेशा के लिए...  तबाही के बाद भी ज़िन्दगी साँस लेती है, ज़ख़्मी ज़मीं को फिर जीने की दुहाई देती है, नाउम्मीदी की मुट्ठी से उम्मीद को हौले से आगोश में लेती है, "तू अगर सच है तो मैं भी एक सच हूँ", मौत को धीमे से बता देती है  कभी कोपलों में, कभी किलकारियों में, हलके से मुस्कुरा देती है  "चल बस कर अब, माफ़ कर दे" यूँ ख़फा कुदरत को मना लेती है  कहती है, "खुदा है तो मैं हूँ, उसकी हस्ती ही तो मुझको ज़िन्दगी देती है"

सभी को होली की रंग बिरंगी शुभकामनायें!

शायद आराम आये...

कर दूँ अर्ज़-ऐ-हाल, शायद आराम आये बदलूँ सम्त-ऐ-ख़याल, शायद आराम आये  छिपा दूँ कहीं  किताब-ऐ-सवाल, शायद आराम आये भुला दूँ सूरत-ऐ-हाल, शायद आराम आये  खो दूँ कहीं दर्द-ऐ-मलाल, शायद आराम आये  पा लूँ रहम तेरा ओ बादशाह-ऐ-जमाल, शायाद आराम आये  

ज़ख़्मी हूँ, बीमार हूँ मैं

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ये कविता उन करोड़ों लोगों के लिए लिखी है, जो दिन प्रति दिन अपने पे किये अत्याचारों या उनके ज़ख्मों को जी रहे हैं. ये लोग रोज़मर्रा ज़िन्दगी में दिखते तो हैं पर दिखते नहीं.... आज भी यौन शोषण परदे के पीछे रहता है, गरीब की बेकद्री को ज़िन्दगी का एक हिस्सा समझा जाता है... जात-पात के नाम पर कभी सत्ता के नाम पर कभी विद्रोह के नाम पर हर रोज़ सैंकड़ों मर रहे हैं, औरतें विधवा हो रही हैं, बच्चे यतीम हो रहे हैं... जब तक हम ये सोचेंगे की हाल इतना भी बुरा नहीं है तब तक कुछ करने के लिए जज़्बा नहीं जगेगा...  ज़ख़्मी हूँ,  बीमार हूँ मैं, अपने ही अंशों की बदकारियों  की शिकार हूँ मैं  गरिमा, गैरत, इज्ज़त, आबरू और हक़ है मेरी पहचान  मगर हर वार कमज़ोर के अधिकार पर ज़ख़्मी करता है मेरी पहचान   इंसान के इंसान बनने का  एक लम्बा इंतज़ार हूँ मैं  ऐ औरत, निंदा तेरा गहना, बलात्कार है तेरा तोफहा, अक्सर दिन दहाड़े,  होती है तेरी हस्ती तबाह  कभी लगता है मैं, मैं नहीं एक बेरहम बाज़ार हूँ मैं  मुफ़लिस, चाहे  आदमी हो या औरत जानवर से भी  गयी गुज़री ह

नारी

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अंतरराष्ट्रीय   महिला दिवस के अवसर पर कुछ पंक्तियाँ , नारीत्व को समर्पित.... तुझी से ताकत मिलती है, तू ही प्यार सिखाती है तू सुन्दरता की परिभाषा, तू ही जग सुंदर बनाती है अपनी जड़ो से दूर होकर, अनजाना आँगन अपनाती है इश्वर की पहली सहायक है, तू उसकी दुनिया बढाती है  तेरे आलिंगन में सुख ही सुख है, ममता व स्नेह से भरी तेरी छाती है जिद्द पर आ जाए तो ज्वाला है, कभी भरी डाली सी झुक जाती है  कितने रिश्ते, कितने रूप, क्या-क्या किरदार निभाती है  अकेले में ग़म से दोस्ती, महफ़िल में मुस्काती है   यूँ तो हर जवाब होता है तेरे पास, कभी खुद ही सवाल बन जाती है  तेरी अपनी भी ज़रूरतें हैं, बस, अक्सर ये भूल जाती है  उनकी छाया बनी रहे सदा, इसकर अपना कद छिपाती है   Photos: Courtesy Google

ख्याल हूँ

कोई कोई ख़याल ठहर जाया करता है, कहता है लफ़्ज़ों में पिरोदे मुझको नज़्म बन जाऊं तो लाफ़ानी हो जाऊं  गुमनामी में न खो दे मुझको  दिलों को छू सकूँ हौले से, इस तरह से कह दे मुझको  दर्द है मुझमें मगर उम्मीद भी है, मुस्कुरा के कह दे मुझको सरहद-ओ-दिवार न रोक सके हरगिज़, अमन का आँचल उड़ा दे मुझको ताज़ा कर दूँ, जिस ज़हन से गुज़र जाऊं, ठंडी हवा सा बना दे मुझको कोई पैगाम बन जाऊं उसका, यूँ मोहब्बत से भर दे मुझको  कहता है तू भी तो एक ख्याल है उसका, अपने से अलग न कर दे मुझको  मेरा ख्याल मुझसे कहता है की मैं खुद खुदा एक का ख्याल हूँ....  ये ख्याल सी ज़िन्दगी उसकी खिदमत-ओ-तारीफ़ में लिखी एक नज़्म बन जाए, यही दुआ है....
भरोसे के काबिल न मेरी किस्मत  है   न तेरी फितरत ,  ज़िन्दगी यूँ भी कट ही जाएगी, सलामत रहे लुफ्त-ए-हसरत 

देखूं, ज़िन्दगी कहाँ तक ले जाती है...

इस रचना ने समीर लाल जी की नयी किताब का शीर्षक याद दिला दिया, 'देख लूँ, तो चलूँ'... :-) समीर जी, cheating की कोशिश नहीं थी... देखूं, ज़िन्दगी कहाँ तक ले जाती है, चले चलूँ, जहाँ तक ले जाती है  चाह कर भी लौटा ना जाए, बेदर्द, वहाँ तक ले जाती है  चारों मौसम, सारे नज़ारे, हर एहसास, हर हाल में हमें तक-तक ले जाती है  थकें भी हों तो बहाने से बुलाती है   देखें इस तरह कब तक ले जाती है? हम भी चले जाते हैं, रुक के क्या हासिल? अपनी ही तो है, अपने ही घर तक ले जाती है  मगर इस रस्ते में बड़े मोड़ लाती है,  क्या-क्या बताएं किधर तक ले जाती है  खेलों की शौक़ीन ज़िन्दगी, बाज़ कहाँ आती है?  वफ़ा से मिलाती है कभी जफा तक ले जाती है बड़ी मुश्किल से मुलाकात कराती है उससे, बड़ी कोशिशों के बाद ये खुदा तक ले जाती है  हर चार कदम पे गुलाब की पंकुड़ी मिल जाती है लगता है ये राह तुझ तक ले जाती है  वो जो कभी किसी को सुनाई ही नहीं दी, अक्सर तन्हाई में उस 'आह' तक ले जाती है   चाह कर भी लौटा ना जाए, बेदर्द, वहाँ तक ले जाती है ...

हिसाब कोशिशों का रखना फ़िज़ूल है

हर वो बादल जो छिपाता है उम्मीद-ए-आफ़ताब को, ज़मीन पे बहता देखोगे हर एक बूँद-ऐ-आब को, मायूसी समेट लेना चाहती हैं ज़िन्दगी की किताब को, बचा के रखना है इससे उस सुनहरे ख्व़ाब को इन्हीं चट्टानों में छिपा वो पत्थर भी है, जुस्तजू ढून्ढ ही लेगी उस नायाब को, तबाही के बाद भी तो फूटती हैं कोपलें, कोई बहार ढूंढ ही लेगी दिल-ऐ-बर्बाद को कब तक छुपेगा सलाम दुप्पटे में, एक दिन हवा कर देगी ज़ाहिर पर्दानशीं आदाब को हिसाब कोशिशों का रखना फ़िज़ूल है, मंजिल पाकर फुर्सत ही कहाँ कामयाब को

पापा के जूते

पापा के जूते हमेशा चमकते रहते थे, पलंग के पास बैठे-बैठे उनके तैयार होने का मुस्तैदी से इंतज़ार करते रहते थे, पापा गर घर पर हैं, तो जूते अपनी जगह पर, उनके होने का निशाँ हुआ करते थे, वैसे तो हमेशा वो अपने जूते एक ही जगह उतारा करते थे, कभी-कभी दूसरों की लापरवाही से, उनके जूते पलंग के नीचे चले जाया करते थे, बचपन में फट से घुटनों पे होकर, भाई और मैं नीचे से निकाला करते थे, पर जब हमारे कदम उनके जूतों से आगे निकल गए, जाने कैसे पापा उन्हें निकाला करते थे हाँ, हमेशा एक जैसे जूते ही खरीदते थे, बिना फीते के जूते पसंद किया करते थे, जब तक बहुत पुराने ना हो जाएं, नए नहीं खरीदा करते थे, जब कोई बीमार हो या मुश्किल में हो, जूतों को जल्दी से पहन निकल जाया करते थे, फिर धीरे धीरे जूते पहनना मुश्किल होने लगा, कभी-कभी चप्पल में चले जाया करते थे, पापा और चमकते हुए जूतों का साथ कम होने लगा अब पापा ज़्यादातर घर में रहा करते थे, जूते वहीँ बैठे बैठे उनका इंतज़ार किया करते थे फिर एक दिन उन्हें उनकी जगह से हटा दिया गया क्यूँकी उनकी की जगह पंखों ने ले ली थी...

The Silent Indian National Anthem

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अपने हिस्से का नूर

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कुछ दिनों पहले अपने अंग्रेजी ब्लॉग पर एक लेख के द्वारा मैंने कुछ प्रशन उठाये थे, जिनका उत्तर भूषण सर  ने बड़ी खूबी से दिया, जिसे आप यहाँ देख सकते हैं. उनके उसी उत्तर से प्रेरित होकर ये कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं, इस उम्मीद के साथ के आम आदमी के पास एक बार फिर ये सन्देश पहुंचे की वो ही ख़ास आदमी है और उसे किसी चालाक सियार के बहकावे में आने कोई ज़रुरत नहीं है. उसके सीधेपन में ही इंसानियत और खुदाई की रिहाइश है. ऐ इंसान, थम के टटोल तो ज़रा, देख, वो रौशनी, वो खुशबु, तुझी में है कहीं  वो अँधेरे जो आते हैं उजाले की शकल में,  तेरे दिल की आवाज़ दबा ना दें कहीं सियासत और ताकत जिनकी चाहत है, मासूमों का लहू बहाना उनकी आदत है, भूल जातें हैं की उनसे बड़ा भी एक है, यह दुनिया जिसकी अमानत है अभी भी वक़्त है सजदे में सर झुका दें यहीं   ऐ खुदा, आम आदमी को बना दे ख़ास, तेरा हर बन्दा अपनी अजमत पे कर सके नाज़, हर एक लिये है अपने हिस्से का नूर , खोल दे ये दिलवालों पे राज़ महसूस करें तुझे दिल में, औरों पीछे भागें नहीं आओ, उस नूर के उजाले में ढूंढे रास्ता अपना, हमदिली जिस डगर हो, वो बने रास्ता अपना, सख्त