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सितंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

टूटेगा नफरत का शिकंजा

जबसे  चिट्ठाजगत  से जुड़ी हूँ, अपने देश के ताज़ा हालातों के बारें में आसानी से पता चल जाता है, वो भी अलग-अलग नज़रियों से. सबसे अच्छी बात तो यह लगी की हमारे देश की महिलायें, भले ही सारी नहीं, सचमुच काफी तर्रकी कर रहीं हैं और बहुत से पुरुष उनकी तर्रकी का सम्मान कर रहें हैं. मैं तो यह सब  पढ़ कर फूली नहीं समाई. पर फिर धीरे-धीरे ऐसे ब्लोग्स से भी परिचय हुआ जो धर्म के नाम पर एक दुसरे पर अभी भी कीचड़ उछाल रहें हैं. मन बहुत दुखी हुआ. मैं मानती हूँ की दोनों तरफ गुस्से के कारण हैं पर किसी एक शख्स या गिरोह की वजह से सबसे नाराज़ हो जाना, यह कहाँ की अकलमंदी है? कितनी सदियों का साथ है पर फिर भी कुछ लोग आपसी प्यार, सौहार्द और भाईचारे को नकारने में लगे हुए हैं.   उन्हीं के लिए यह पंक्तियाँ सादर लिखीं हैं: जब सोचते हैं उन के बारे में जो अच्छे नहीं लगते, क्यूँ इतने नाराज़ हो जाते हैं, जब वो आपके कुछ नहीं लगते? कुछ तो रिश्ता ज़रूर है उनसे भी आपका, वरना उनकी बातों से क्यों भरा है ब्लॉग आपका? लगता नहीं की वो आपके कुछ नहीं लगते एक सरज़मीं है एक ही दाता, कला, संस्कृति कितनी पास, सदि

कोई ऐसी टीचर दीदी होती, काश!

अखबारों में और बहुत सारे ब्लोग्स में भी  पढ़ा  है और दिल में जानती भी हूँ की हमारी बहुत सी मुश्किलों को बढाने में हमारे धार्मिक और राजनितिक नेताओं का काफी योगदान रहा है... जैसे बच्चों को सिखाने के लिए स्कूल होता है, वैसे ही इन्हें सिखाने के लिए भी कोई स्कूल होता तो मज़ा आ जाता!!! :-) कोई ऐसी टीचर दीदी होती,   सारे नेताओं को क्लास में बैठाती, 'लड़ाई-लड़ाई माफ़ करो, भगवान् का नाम याद करो', ऎसे  पाठ पढाती जब टिफिन की रोटी अच्छी लगती थी, बिन जाने हिन्दू की है या मुस्लिम की, वो उन्हें उस बचपन की याद दिलाती  सफ़ेद, हरा और नारंगी, मिल के रहते जैसे संगी, वो उन्हें तिरंगे का मतलब समझाती जो नेता फिर भी झगड़ें, स्वार्थ को जो रहें जकड़ें,  वो उनको मुर्गा बनाती :-) धीरे-धीरे नेता सुधर जाते, भाईचारे के पथ में हमारे अगुवा बन जाते, टीचर दीदी ऐसे पाठ पढाती 

ऐ इंसानियत, तुझे मेरी परवाह ही नहीं!

डेमोक्रेटिक रेपुब्लीक ऑफ़ कांगो में लगभग ५०० औरतों के साथ हुए बलात्कार की खबर ने मुझे दो महीने पहले  'युगांडा रेड क्रोस' के एक कार्यकर्ता  से हुए एक वार्तालाप की याद दिला दी. उन्होंने बताया की वो उन लोगों के साथ काम करते हैं जो रवांडा में हो रहे अत्याचार से भाग कर युगांडा में शरण लेने की कोशिश करते हैं. कुछ लोगों को शरण मिलती है और कुछ को नहीं. जब एक सताई हुई महिला को सीमा पार करने की मंज़ूरी नहीं मिली तो वो बोली की वो जानती है की उसे रोज़-रोज़ के शोषण और बलात्कारों से कोई नहीं बचा सकता पर कम से कम उसे गर्भपात के लिए ही मदद मिल जाए. वो अपने दर्द और उसकी यादों को पालना नहीं चाहती थी.... इस दुनिया में बहुत सी ऐसी महिलायें हैं जो अगुवा कर ली जातीं हैं और गुलामी, शोषण, भूख और बीमारियों से भरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो जातीं हैं. रवांडा की उस बहन और दुनिया भर में उसके जैसी कई बहनों  को समर्पित ये कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं... रोती भी नहीं, चिल्लाती भी नहीं, जानती है, कोई सुनेगा ही नहीं सर पर छत, पेट भर खाना, आदत भी नहीं, कोई आस भी नहीं बारम्बार बलात्कार के अंधेरों में, इं

ना खेलो इन हर्फों से लापरवाही से

हर्फ़ मोतियों की तरह हर तरफ बिखरे हैं, हर मोती की अपनी अदा है, जुड़ जाएँ तो जवाहरात-ऐ- ख्याल हैं, यह हर्फ़ ही तो पैगम्बर-ऐ-खुदा है ना खेलो इन हर्फों से लापरवाही से, इन्हें लफ़्ज़ों में बदलो दानाई से, फिर लफ़्ज़ों को चुनो बड़ी सफाई से, लफ्ज़ जो जोड़े दिलों को, उन्ही में रिहाइश-ऐ-खुदा है अक्सर इन मोतियों की दुनिया में आ जाती हूँ, नई-नई तरकीबों से इन्हें सजाती हूँ, हर्फों को लफ़्ज़ों में, लफ़्ज़ों को शेरों में पिरोती हूँ, यह शायरी बड़ी खूबसूरत बरकत-ऐ-खुदा है

आज मेरी भी सालगिरह है

सभी को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं! आज मेरी भी सालगिरह है, तोफ़्ह में अपना नूर दिखा दे, सादगी और मोहब्बत से जीना सिखा दे मेरे खुदा, मुझे अच्छा बना दे, सवालों और जवाबों की होड़ ने बहुत दिल दुखाए हैं, बोलूं तो समझदारी से, वरना चुप रहना सिखा दे सही और ग़लत का फर्क कौन समझ सका है? मुझे बस तेरी मर्ज़ी पे चलना सिखा दे ग़मों और शायरी का बड़ा पुराना रिश्ता है, मुझे अपने गीतों में मुस्कुराना सिखा दे वो लफ्ज़, वक़्त ओ शख्स, जिन्हें भूलना ही वाजिब है, ऐ खुदा, उन्हें भूलना सिखा दे, जिस खिलखिलाहट पे ग़म सर झुका दे, मुझे ऐसे हँसना सिखा दे साज़ों और महफिलों की परवाह नहीं मुझे, छोटी-छोटी खुशिओं की धुन पे झूमना सिखा दे जो चलते-चलते निढाल हो चलें हों, उनकी हिम्मत बन सकूँ, ऐसे साथ निभाना सिखा दे  अपनी माँ, मट्टी और अपनों से जुड़ी रहूँ, इस तरह आगे  बढ़ना सिखा दे  हर दिन इंतज़ार रहे उस दिन का, जब तुझसे मुलाकात होगी, मुझे अपनी ज़िन्दगी के दिन गिनना सिखा दे

अपनी ना जात एक है ना धर्म एक

स्नेहू के लिए! तुझ  से बात करके रस्ते निकलने लगते हैं गुप अँधेरे में भी तेरे शब्दों के दिए जलने लगते हैं  तू वहां हंस देता है, यहाँ सुबह मुस्कुराने लगती है, तेरी बातों में हर गाँठ खुलने लगती है, छोटा सा है पर मेरा इतना ख्याल करता है, आदर की सीमा बिना लांघे, जब चाहे मज़ाक उड़ाया करता है  अपनी ना जात एक है ना धर्म एक, फिर भी बांधे है कोई बंधन नेक बेटा है, भाई है, दोस्त है या फिर कोई फ़रिश्ता है? तू ही बता दे यह कैसा अजब सा रिश्ता है?

कभी साथ बैठें तो हमदिली से बातें हों

ज़रूरी नहीं की जब हम सही हों, तो वो गलत ही हों, आमने-सामने से तो सिक्के के अलग-अलग पहलु ही दिखते हैं, कभी साथ बैठें तो हमदिली से बातें  हों गुस्से से तो अक्सर बात बिगड़ ही जाती है, कभी नज़र मिलाइए जब वो मुस्कुराते हों, मिट्ठाइयां ज़रा और मीठी हो जातीं हैं, जब दिवाली और ईद मिल के मनाते हों अपने लिए तो इबादतगाह सब बनाते लेते हैं, इंसानियत तो तब है जब हिन्दू मज्जिदें और मुसलमा मंदिर बनाते हों

बड़ी सख्त-दिल यादें हैं, लौट-लौट के आ जाती हैं

बड़ी सख्त-दिल यादें हैं, लौट-लौट के आ जातीं हैं, ज़ख्म ताज़ा हो जाते हैं, दिल दुखा जातीं हैं सारा माहौल बदल जाता है,  ज़हन सहम जाता है, हिम्मत टूट जाती है,  वक़्त रुक सा जाता है, शम्मा-ऐ-ख़ुशी बुझा जातीं हैं बड़ी सख्त-दिल यादें हैं, लौट-लौट के आ जातीं हैं हँसते-हँसते चुप हो जाती हूँ,  दिल के किसी अँधेरे कोने में छुप जाती हूँ, आँखें मींच लेती हूँ,  आंसूं पी जाती हूँ, बड़ी बेगैरत हैं, बड़ी मुश्किल से छोड़ के जातीं हैं बड़ी सख्त-दिल यादें हैं, लौट-लौट के आ जातीं हैं कुछ यादें प्यारी हैं,  मीठी हैं,  मगर फिर भी दिल दुखाती हैं, वो वक़्त याद दिलाती हैं जो वापिस नहीं आ सकता,  वो शख्स याद दिलाती हैं जो वापिस नहीं आ सकता, आँखें भीगा जाती हैं, बेबसी जाता जा जातीं हैं बड़ी सख्त-दिल यादें हैं, लौट-लौट के आ जातीं हैं

किसी तकरार को दरार ना बनने देना

नाराज़ हो जाना, झगड़ लेना, मेरी गलती पे चाहे जितना डांट देना, पर अगली बार मिलो जो मुझसे, बस एक बार दिल से मुस्कुरा देना रंजिश ने हज़ारों दिलों में कब्रिस्तान बनाये हैं, तुम अपने दिल में दोस्ती को धड़कने देना बात होगी हो बात पे बात निकलेगी, किसी तकरार को दरार ना बनने देना नफरत, कड़वाहट, खुदगर्ज़ी नहीं मंज़ूर मुझे, इन में से किसी की भी ना चलने देना कुछ तो है जो हमारे खून का रंग मिलता है, इसमें मज़हब-ओ-सरहदों का रंग ना मिलने देना

कुछ लोगों की जिद्द खेल रही हाजारों की जान से

वो जो मजबूर, गरीब, भूके, बीमार और पीड़ित हैं, वो जो हर पल हालातों से लड़ रहें हैं, मेरे खुदा आज की रात वो मीठी नींद सो सकें, मेरे इश्वर आज सुबह उन तक उम्मीद की किरण पहुँच सके कोई बाड़ से परेशान हैं, तो कहीं ज़लज़ले से बुरे हाल हैं, कोई खान में फंसे हैं, तो कहीं चक्रवात में बेहाल हैं, कहीं कुछ लोगों की जिद्द खेल रही हाजारों की जान से मेरे परवरदिगार बरकतें बन कर बरस जा उन सब पर आज आसमान से

अन्दर कहीं अभी भी बच्ची हूँ मैं

जानती हूँ की बड़ी हो गयी हूँ मैं, लेकिन  अन्दर कहीं, अभी भी बच्ची हूँ मैं रात के अँधेरे से अभी भी डर जाती हूँ, बच्चों के साथ मसकरी में सब भूल जाती हूँ, पुराने दोस्तों के लिए आज भी मचलती हूँ मैं अन्दर कहीं, अभी भी बच्ची हूँ मैं बड़ो के जैसे बातें तो कर लेती हूँ, पर सब समझ नहीं पाती, रात की नींद जिस गुस्से को भगा ना पाए, वो पचा नहीं पाती, सुबह की ओस जहाँ मन का मैल धो दे, अभी भी उसी ज़मीन पे चलती हूँ मैं अन्दर कहीं अभी भी बच्ची हूँ मैं  http://vrinittogether.blogspot.com/2010/05/jaanti-hoon-ki-badi-ho-gayi-hoon-main.html

कब तक तकते रहेंगे उस हिस्से को जो ख़ाली रह गया

कब तक  तकते रहेंगे उस हिस्से को जो ख़ाली रह गया, वक़्त के दरिया में वो राही कब का बह गया, अरसा हुआ जब रेत का वो खूबसूरत मंज़र डह गया, आगे बड़ें अब समेट के उस जीवन को जो बिखर के रह गया 

कभी थोड़ा ठहरो...

कभी थोड़ा ठहरो, महसूस करो उस हवा को जो बालों को सहलाती है कभी ज़रा रुक कर, देखो उस बदली को जो ठंडी बूंदे बरसाती है हर रोज़ अपने साथ वही रोज़ की खिच-खिच लाता है, गौर करो, वो कभी-कभी अपने साथ इन्द्रधनुष भी लाता है, कभी जी भर कर, निहारो उस 'रंग बिरंगी एकता' को जो सारा आकाश भिगाती है हर रोज़ हड़बड़ी में काम पे निकल जाते हैं, रास्ते के फूल आपकी एक नज़र को तरस जाते हैं , कभी थम कर, साँसों में भर लो उस खुशबु को जो सारी क्यारी महकाती है

रंग बिरंगी एकता: दूर कहीं शोर सुनाई देता है

रंग बिरंगी एकता: दूर कहीं शोर सुनाई देता है