दिल्ली वाला दर्द
दिल्ली, तुझे छोड़ तो दिया, पर कभी छोड़ा नहीं तुझे, पहले मेरी रिहाइश तुझ में थी, अब तू मेरे दिल में रहती है रेड क्रॉस की नौकरी के लिए मुझे अक्सर यहाँ-वहाँ जाना पड़ता है। दस साल पहले जब रेड क्रॉस के साथ काम शुरू किया, हर सफ़र दिल्ली से शुरू होता था और दिल्ली में ख़त्म हो जाता था। फिर ज़िन्दगी के सफ़र में कुछ ऐसे मोड़ आये की रेड क्रॉस के सफ़र अब दिल्ली में ख़त्म नहीं होते। हाँ, ख्वाहिश ज़रूर रहती है... चार दिन पहले वाशिंगटन डीसी से केंटकी जाते हुए, जहाज़ में इस रचना से मुलाकात हुई: फोटो: अंजना दयाल फिर एक और सफ़र, मगर यह सफ़र भी मेरी मंजिल तक नहीं जाता, दिल्ली आने से पहले ही रुक जाता है ढूँढती हैं आँखे किसी हिंदुस्तानी चेहरे को, जिससे कुछ बात कर सकूं, फिर लिहाज़ से कुछ नहीं कहती, गर कोई मिल भी जाता है, अक्सर दिल्ली वाले दर्द को मीठी यादों से सहला लिया करती हूँ, छिपा लेती हूँ सबसे अगर कोई आँसू गिर भी जाता है ये खिड़की के बाहर बादल तो किसी सिम्त के गुलाम नहीं, क्या इन बादलों में कोई बादल मेरी सरज़मी तक भी जाता है? यूँ तो जा रहे हैं सभी मुसाफिर एक ही मंजिल की तर