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हिंदी उर्दू के पंख

माना बंद हैं दरवाज़े समय के, लफ़्ज़ों के झरोखों से उड़ उड़ जाऊं मैं, रोक सके तो दिखा रोक के, ऐ परदेस मुझे, हिंदी उर्दू के पंख लगा के उड़ उड़ जाऊं मैं, बातचीत के बीच उड़ जाऊं, मन ही मन मुस्का उड़ जाऊं, सबको चकमा देके उड़ उड़ जाऊं मैं  तबले की ताल पे उड़ जाऊं, सितार को ढाल बना के उड़ जाऊं, बांसूरी की धुन पे, उड़ उड़ जाऊं मैं गोल-गप्पों की याद में उड़ जाऊं, इमली का खट्ठा स्वाद लिए उड़ जाऊं, साथ तड़के के धुएँ के,  उड़ उड़ जाऊं मैं शेरों से बुने कालीन पे उड़ जाऊं, यूँ परदेसी ज़मीन से उड़ जाऊं, ख्यालों की बाँह पकड़े, उड़ उड़ जाऊं मैं मेहँदी से नक्शा बना के उड़ जाऊं, चूड़ियों के सितारों में उड़ जाऊं, भाई की सूरत देख चाँद में, उड़ उड़ जाऊं मैं सपनों की सिड़ी बना के उड़ जाऊं, ख्वाहीशों के पीछे-पीछे उड़ जाऊं, दुआ का आँचल थामे, उड़ उड़ जाऊं मैं

मैं भी हिंदुस्तान हूँ

अगर हर हिन्दुस्तानी को कम-से-कम एक साल के लिए हिंदुस्तान से दूर रहने का मौका मिले, ख़ासकर उन्हें जो अक्सर अपने देश की आलोचना किया करते हैं तो शायद उन्हें अपने देश और इस देश में जन्म लेने की सही कीमत पता लग सके. हाँ, गरीबी है, भ्रष्टाचार भी है, पर यह सब कहाँ नही है?  नहीं है तो देश की मिटटी की खुशबू नहीं है, बस स्टैंड के पास चाय की दूकान पे रेडियो पे बजते हिंदी फिल्मों के गाने नहीं हैं, घर में किसी भी समय आने वाले मेहमान नहीं हैं, वो पड़ोसी नहीं हैं जिनसे ज़रुरत पड़ने पर चाय की पत्ती मांगी जा सके और बड़ों के वो अनगिनत हाथ नहीं हैं जो सर छू कर दुआ देते नहीं थकते… जब चाह कर भी लौट न पाएँ तो नाले के पानी की बदबू की याद भी अच्छी लगने लगती है. शायद इसलिए क्यूंकी वहां से गुज़रते हुए सहेली हमेशा साथ होती थी और साथ होती थी हंसी और मस्ती! हर याद दिल के और करीब आ जाती है. जो रिश्ते टूट गए, उनके टूटने की आवाज़ और ज़ोर से गूंजने लगती है, और जो रिश्ते जिंदा हैं उन्हें बरक़रार रखने की लौ ज़रा और तेज़ हो जाती है. कभी रोटी, कभी पैसा, कभी ख्याति, कभी कोई और मजबूरी, अपनी मिटटी से दूर ले

ढक्कन :-)

यह रचना उन मुट्ठीभर प्रियजनों के लिए है जो अभी भी धर्म या जाती के नाम पर अपने आपको दूसरों से ऊँचा समझने की भूल करते हैं… मगर हम यह भी जानते हैं की रूठ कर तो कोई भी खुश नहीं रहता… बस इन ढक्कनों का ढक्कन खोलने की ज़रुरत है :-)  वो एक ही है, कब से जानते हैं, फिर भी झूटों उसे बांटते हैं, ये सब जानते हैं  दिल दुखता है उसका,  जब लड़ते हैं नाम लेके उसका हम सब ये जानते हैं  बेवकूफ़ी है, जहालत है, वजह-ऐ-फर्क-ऐ-ईमान से जो बिगड़ी हालत है  आप भी जानते हैं  किसी दिन खुदा की जो सुन लेते, दीन-ईमान में भाईचारा वो बुन लेते हम ये मानते हैं  इनाम मुहब्बत-ओ-क़ुरबानी का बड़ा होता है, सजा से मुआफी देने वाला बड़ा होता है, बच्चे भी जानते हैं  थकते नहीं हैं, ऊँगली उठा उठाके? खुद भी गिरते हैं, उन्हें गिरा गिराके, क्यूँ नहीं मानते हैं? दिल को भाते हैं बच्चे मिलके खेलते हुए, सुलह की कसक उठती है उन्हें देखते हुए, हम यह जानते हैं :-) नाराज़गी का ढक्कन प्यार का बहाव रोक देता है इंसान को उसका ही 'मैं' रोक देता है, आखिर इस 'मैं' की क्यूँ