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ज़रा मुस्कुरा दीजिये....

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उदासी, गुस्से और अकड़ से ज़्यादा दोस्ती अच्छी नहीं होती, इनकी पकड़ एक मुस्कराहट से टूट जाती है और फिर माहौल बदलते देर नहीं लगती... मुस्कुराने के कई फायदे हैं, यह आपको ही नहीं सारे आलम को खूबसूरत बना देती है, आपकी रूह को सेहत देती है, दोस्ती को मजबूती देती है, चेहरे को रंगत देती है, नफरत की गिरह तोड़ती है. जब मुस्कराहट दिल से निकलती है तो दिल तक पहुँचती है.... हंस के उदासी हरा दीजिये, मसले को ना हवा दीजिये बस, ज़रा मुस्कुरा दीजिये http://dostishayaris.blogspot.com/2010/07/dil-ka-bazar-mian-dolat-nahi-dekhi-jati.html      यूँ खफ़ा क्या रहा कीजिये क्यूँ सभी को सज़ा दीजिये जी, ज़रा मुस्कुरा दीजिये  ये माहौल सजा दीजिये, सारा आलम जगमगा दीजिये यूँ ज़रा मुस्कुरा दीजिये आग-ऐ-रंजिश बुझा दीजिये गुफ्तुगू इस तरह कीजिये के ज़रा मुस्कुरा दीजिये मुश्किलों से यूँ लड़ा कीजिये शिकन को ना कोई जगह दीजिये हो सके तो, ज़रा मुस्कुरा दीजिये  दुश्मनों को भी शामिल किया कीजिये आप जब भी दुआ कीजिये खुदा के लिये ज़रा मुस्कुरा दीजिये माफ़ दिल से किया कीजिये, जब किसी से गिला कीजिये फिर ज़रा मुस्कुरा दीजिये ज

ख़ामोशी

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उनकी ख़ामोशी को समझना उनको समझने से भी मुश्किल काम है...  क्या है यह ख़ामोशी? क्यूँ ये सुनाई सी देती है? ख़ामोशी जितनी लम्बी हो उतनी ही तेज़ सुनाई देती है, मगर इसकी आवाज़ में लफ्ज़ नहीं होते, यह सुबकती है, मुस्कुराती है, बुलाती है, लौटा भी देती है, मगर इस उम्मीद में रहती है की शायद कभी मर मिटेगी और लफ़्ज़ों में बयां होगी...  ख़ामोशी में सब्र है, दर्द है , शरारत है, इकरार भी है, इसी से तकरार संभलती है, यही इज़हार-ऐ-तकरार भी  है ये पनाह देती है राज़-ऐ-दिल को, दिल पे ताला भी खुद है, खुद ही पहरेदार भी है  कभी गुनगुनाती है ग़ज़ल बन कर, कभी अंधेरों में खोया सूना दयार भी है कहते हैं, एक चुप सौ बातों पे भारी, मगर कभी शिकस्त-ओ-हार भी है चिलमन-ऐ-ख़ामोशी में छिपे हैं सैंकड़ों एहसास, जो पर्दाफाश होने को बेक़रार भी हैं सुस्त माज़ी को सुला लेती है अपनी गोद में,  कभी मुस्तकबिल के तूफ़ान की पयाम बार भी है http://www.layoutsparks.com/1/182242/waiting-alone-girl-sad.html यह वो दोशीज़ा है जिसे  इंतज़ार-ऐ- रिवायत-ऐ-वफ़ा है ख़ामोश है मगर टूट जाने को तैयार भी है  मुस्तकबिल = Future 

पहली मोहब्बत तो पहली ही होती है

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कोई कोई कविता बस आंसूओं के साथ झर-झर बह जाती है.... और शायद दर्द का कुछ हिस्सा भी अपने साथ ले जाती है... उंगली पकड़ के बचपन की मस्त दुनिया में ले जाती है... जैसे मेरी जड़ों में से कुछ मट्टी मेरे हाथ में दे जाती है.... कभी-कभी पुरानी तस्वीरों के ज़रिये माज़ी की सैर पे निकल जाती हूँ, उन पुरानी दीवारों के बीच उस दुनिया में, अपनी उस साइकिल पे घुमने निकल जाती हूँ पर अब सिर्फ साइकिल से काम नहीं चलता, नाव भी ढूँढनी पड़ती है, आंसूओं की एक लहर भी चलती हैं वहां पर, हिम्मत की पतवार चलानी पड़ती है याद है मुझे, जहां दीवारों से बाहर झाँकने की कोशिश हुई, वहीँ मेरी पहली मोहब्बत के माथे पे सलवटें हुईं पर ज्यूँ ही शरारतें अपने पंख समेटतीं, माथे से ज़रा नीचे आँखें मुस्कुराने लगतीं याद हैं जो झुमके मेरे लिये लाये थे तुम, वो कहानियां जो खुद ही बना लेते थे तुम, खट्टे-मीठे चुटकुलों से सबको हंसा देते थे तुम सच है, ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पे जीते थे तुम फिर यकायक, 'आज' नज़र से 'बीते हुए कल' को चुरा लेता है, पापा की हंसती हुई ऑंखें नहीं दिखती, पर बेटे का चेहरा मुस

नाराज़गी जितनी दिल में रखी जाए, उतनी ही भारी हो जाती है

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हम सभी कभी न कभी किसी न किसी पे नाराज़ हुए होंगे. पर कभी कभी ये गुस्सा हमारी ज़िन्दगी में, हमारे दिलों में, हमारे रिश्तों में या हमारे नज़रिए में रह जाता है. कभी रिश्ते खराब करता है कभी सेहत. यहाँ यही गुज़ारिश है की गुस्से से निजात पायें, जिन हालातों या लोगों की वजह से नाराजगी की शुरुआत हुई, उन्हें बदलने की कोशिश करें या हम अपना नज़रिया बदलने की कोशिश करें और कुछ काम ना आए तो अपना रास्ता बदल लें... माफ़ी को गले लगाना, गुस्से को गले लगाने से कहीं बेहतर है... नाराज़गी जितनी देर दिल में रखी जाए, उतनी ही भारी हो जाती है, दिल का बोझ बन जाती है, सूखी-सूखी ज़िन्दगी बेचारी हो जाती है  न जाने क्यूँ फिर भी  इस बोझ को दिल से लगाए रहते हैं, नाराज़गी की ता'बेदारी में सर को झुकाए रहते हैं  रूठना-मनाना जायज़ है थोड़ा सा गुस्सा, थोड़ी सी माफ़ी, ज़िन्दगी के ज़ाएके और मिजाज़  बदलने को काफी  मगर लम्बी नाराज़गी, ढेर सारा गुस्सा, ना सेहत, ना रिश्ते, ना दिल के चैन के लिये अच्छा  http://lifehacker.com/5614548/venting-frustration-will-only-make-your-anger-worse आँखें लाल, तमतमाता चेहरा, उखड

ऐसी अदा-ऐ-गुज़ारिश मुझमें है

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ये पंक्तियाँ हर उस दिल के लिए हैं जो ख्वाब देखता है एक बेहतर कल के लिए और उसे पूरा करने के लिए वो खुद ज़िम्मेदारी उठा लेता है... दूसरा कोई कदम उठाये या ना उठाये  वो पहला कदम उठा लेता है... और जब पहला कदम मजबूती और इमानदारी से बढाया जाता है खुदा के साथ-साथ कारवां भी साथ हो लेता है... मेरा ही कदम पहला हो, उस जहाँ की तरफ,  जिसकी ख्वाहिश मुझमें है  http://www.flickr.com/photos/31840831@N04/3200558333 जो ख्वाब उन सूनी आँखों ने देखा ही नहीं, उसे पूरा करने की  गुंजाइश मुझमें है  खुदा को आसमानों में क्यूँ ढूंडा करूँ? जब उसकी रिहाइश मुझमें है  एक कारवाँ भी साथ हो ही लेगा, ऐसी अदा-ऐ-गुज़ारिश मुझमें है खुदगर्ज़ी की लहर में बर्फ हुए जातें हैं सीने, दिलों के पिघलादे, वो गर्माइश मुझमें है  मेरे ख्वाबों, मेरे अरमानों के लिए औरों को क्यों ताकूँ?  इनकी तामीर की पैदाइश मुझमें है  मौत पीठ थपथपाए अंजाम-ऐ-ज़िन्दगी यूँ हो, खुद से ये फरमाईश मुझमें है  

गरीबी गरीब की किस्मत है या समाज की ज़रुरत?

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समाज में कई बुराइयां हैं, जिनमें से गरीबी भी एक है, मगर इसे एक आम इंसान ने शायद स्वीकार लिया है. तभी तो जब कोई बलात्कार होता है, या क़त्ल होता है तो काफी शोर मचता है, गुनाहगार को सज़ा मिले ना मिले ये और बात है. पर जब हम किसी को भीक मांगता देखते हैं, या किसी कमज़ोर व्यक्ति को सड़क पे सोता देखते हैं तो शोर नहीं मचाते... जब एक और गरीब ठण्ड से मर जाता है तो एक और नंबर की तरह दर्ज हो जाता है पर अखबार की सुर्खियाँ नहीं बनता. ऐसा क्यूँ होता है?  गरीबी गरीब की किस्मत है  या समाज की ज़रुरत? गरीबी नहीं तो, अमीरी चल सके दो कदम, उसकी ये जुर्रत? सब बराबर हो जाएंगे तो, क्या रह जाएगी लाला की औकात? मेमसाब की चिल्लर कहाँ जाएगी? पुण्ये के नाम पे कहाँ जाएगी खैरात? अमीरी-गरीबी मिट जाती तो  रह जाती सिर्फ इंसानियत, पैसे की ताक-धिन फीकी होती, नाचती फिर काबलियत! लम्बाई चाहे जितनी हो, सबका बराबर कद होता, धरती माँ के घाव भरते, पिता परमेश्वर गदगद होता   http://trendsupdates.com/indian-economy-continues-to-prosper-yet-indian-children-starve-to-death/ पर नहीं! गरीबी पलती है, अमीरी क

तेरी रज़ा की बिनाह क्या है?

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क्यूँ यह मसला उलझता जाता है? तेरा रहम वक़्त-बे-वक़्त कहाँ गुम हो जाता है? जब झुलसते हैं आग में मकां, तब बरसता हुआ बादल क्यूँ नहीं आता है? ख़ाक में मिला दिया जाता है जब कोई मजबूर, काइनात को उस पे तरस क्यूँ नहीं आता है? http://islamizationwatch.blogspot.com/2010/04/bangladesh-tells-pakistan-apologise.html कभी ज़र्रे को सितारा बना देता है, कभी इंसान का मोल ज़र्रे से भी कम नज़र आता है कुछ इंसानों को फरिश्तों की फितरत बक्शी है और कुछ इंसानों में इंसान भी  नज़र  नहीं  आता है कहीं तेरी रौशनी भिगाती है सारा आलम फिर कुछ अंधेरों से तेरा नूर क्यूँ हार जाता है? जहाँ से मंजिल सीधे नज़र आने लगे वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है? तेरे होने पे या तेरी ताकत पे शक़ नहीं है कोई, तेरी रज़ा की बिनाह क्या है, ये समझ नहीं आता है  आजा या बुलाले के रूबरू गुफ्तुगू हो अब इशारों से इत्मिनान नहीं आता है

बार-बार वही बात, बात को हल्का कर देती है

एहसासों का समंदर उनसे संभाला ना जाएगा, इसलिए उसे दिल में संजोए रहते हैं  तूफान को लफ़्ज़ों की शकल देके, बूंद-बूंद रिसते रहते हैं होंठों को आराम दिया करते हैं, कलम को थकाए रहते हैं सीधी बात कहीं रिश्तों को घायल ना कर दे, शायरी में पनाह लिए रहते हैं कभी-कभी बार-बार वही बात, बात को हल्का कर देती है  अपनी दरख्वास्त को यूँ ख़ामोशी में डुबाए रहते हैं   आरज़ू है जिसकी दिल को, उसे दोनों हाथों से लुटाये रहते हैं 

चल उठ, ज़िन्दगी, चलते हैं! -2

चल उठ, ज़िन्दगी, चलते हैं! सिर्फ अपने लिए जीना अधूरा सा लगता है आ, तुझे जी भर के जीने, चलते हैं चाचा जी को अब दिखता नहीं, चल, उन्हें अखबार सुनाने, चलते हैं कामवाली की लड़की फटे कपडे पहने है, चल, उसे नई फ्राक दिलाने, चलते हैं पड़ोस की ताई का कोई नहीं रहा अब, चल, उनको हंसाने, चलते हैं सामने की सड़क पे वो अक्सर भूखा सोता है, चल, उसे खाना खिलाने, चलते हैं बड़े दिन हुए माँ को कुछ मीठा खिलाये, चल, हलवा बनाने, चलते हैं लगता है, शिकवा दूर नहीं हुआ उनका, चल, भाभी को मनाने, चलते हैं बच्चों से खेले बहुत वक़्त हुआ, चल, दिल बहलाने, चलते हैं चिंता-परेशानी बहुत हुआ, चल, कोई सपना सजाने, चलते हैं वक़्त आने पे अलविदा भी कह देंगे तुझे, फिलहाल, पल पल को जीने, चलते हैं

चल उठ, ज़िन्दगी, चलते हैं

कभी-कभी ज़िन्दगी थम सी जाती है, ऐसी जगह ले आ जाती है जहाँ हम रोज़मर्रा के कामों इतना मशगूल हो जातें हैं की आगे बढ़ना भूल सा जाते हैं. वही रोज़ खाना पकाना, बच्चों को  पढ़ाना , या दफ्तर का काम, बस यही रह जाता है... हम थक से जातें हैं... बहुत कुछ करना तो चाहते हैं, पर कुछ सूझता नहीं... भूल जातें हैं की शायद हम भी किसी गरीब या अनाथ बच्चे की पढाई का खर्च उठा सकते हैं, या किसी निरक्षर को पड़ना सिखा सकते हैं, या फिर पड़ोस में रहने वाले बुज़ुर्ग को हंसा सकते हैं.... कभी-कभी तो घर में एक साथ रहने वालों की दिल की ख़ुशी क्या है, यह जानने का भी वक़्त नहीं मिलता, उसे पूरा करना तो दूर की बात है... पर हममें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो ना जाने कितनी भी दिक्कतें हों, कितनी भी थकावट हो, अपने आपको समेटते हैं और ज़िन्दगी से कहतें हैं:  चल उठ, ज़िन्दगी चलते हैं, अगले मुकाम की तरफ, चलते हैं थके थके ही सही, आगे बड़ते रहते हैं, चाहे धीरे धीरे ही, कदम बढ़ाते रहते हैं  कब तक थमे रहें यूँ ही, चल, चलते हैं  जो निकल गए आगे, निकलने दे, जो आ रहें हैं पीछे, उन्हें आने दे, हम अपनी रफ़्तार पे चले

छोटे-छोटे क़दमों का रिवाज़

उस बयाबाँ के पीछे एक बगीचा था, ये नहीं पता था दरख्तों के उस झुण्ड के पीछे गुलों का गलीचा था, ये नहीं पता था  डर के मुड़ जाया करती थी जंगल से घबराया करती थी, डर को भी डराने एक तरीका था ये नहीं पता था फिर छोटे-छोटे क़दमों का सीखा रिवाज़ नया, एक नई पगडण्डी का आगाज़ हुआ, हर कदम डर को हौसले में बदल सकता था ये नहीं पता था   अब कोई बयाबाँ कभी जो दिल जो डराता है, हौसले को सिर्फ बगीचा ही नज़र आता है, हौसला अपने दिल में ही कहीं छिपा था, यह नहीं पता था

हर इनकार ईमान हो जाता है

दिल टूटता तो है, पर टूट के और बड़ा हो जाता है,  हर ठोकर पर आह तो निकलती है , पर अगला कदम कुछ और होशिआर हो जाता है  हमले का मकसद कुछ भी क्यूँ न हो, हर हमले से हौसला कुछ और जवाँ हो जाता है  राहेमंज़िल कितनी भी लम्बी हो, इरादा पक्का हो तो सफ़र आसां हो जाता है  कैद-खाना जिस्म रोक सकता है, ख्याल सैलाखें तोड़ उड़न छू हो जाता है   फज़ल उसका जब सेहरा को समंदर करता है  हर इनकार ईमान हो जाता है 

जज़्बात कुछ यूँ बयां होते हैं...

कभी कह के, कभी लिख के, कभी आँखों से बयां होते हैं कभी आंसूं, कभी तब्बसुम, कभी स्याही से बयां होते हैं  नहीं  शहूर इन अल्हड़ जज़बातों को, पर्दे को हवा कर के, बयां होते हैं कभी बेबाक हैं, कभी शर्मीले से, कभी इतराते हुए बयां होते हैं  कभी शीशे में उतरते नज़र आते हैं, कभी धुंध-ओ-धुंए में बयां होते हैं  कभी तीरंदाजी करते हैं, कभी मल्ल्हम लगाते हैं, हर अंदाज़ में बयां होते हैं  दिल में छुपे रहते हैं तो गुबार बन जातें हैं, राहत-ऐ-रूह है जब बयां होते हैं  बड़ी वफ़ा से साथ निभाते हैं ज़िन्दगी का, आखरी सांस तक बयां होते हैं 

इस बार दिवाली तू करना आलोकित हर मन

सभी को दीपावली की शुभकामनायें! हर साल दिवाली करती है घर आँगन रौशन   इस बार दिवाली तू करना     आलोकित हर मन    टिमटिमाते दियों से दूर हो हर अँधियारा  दमकें जीवन पथ  जगमगाए जग सारा ऐ  दिवाली, तेरी रौशनी कोई भेद न करे, करे रौशन बंगले को और  झोपड़ी को रोशन करे  तेरी मिठाई से  मीठी हो जाए हर जुबां, सौहार्द और प्रेम से भर दे हमारी हर शाम ओ सुबह

अरुंधती जी, और सरहदें?

अरुंधती जी की किताब ने बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं, बहोतों का दिल दुखाया, कुछ को खुश भी किया. मगर क्या सचमुच उन्होंने कश्मीर मसले का कोई ठोस समाधान दिया?  इस सारे मामले ने मुझे उन दिनों की याद दिलाई जब मैं श्रीनगर के लोगों से उनकी समस्याओं के बारे में जानकारी ले रही थी. वहां एक आम इंसान को रोज़ की रोटी, सर के उप्पर छत, बच्चों के लिए आगे बड़ने के अवसर जैसी चीज़ों की फिक्र थी, बिलकुल वैसे ही जैसे एक आम इंसान को बिहार में या उत्तर प्रदेश में होती है. हाँ, कुछ और भी था हवा में, अलगाववाद जैसा... दिल भी दुखा. पर हर जगह नहीं.  एक आम कश्मीरी को उन्नति चाहिए, उसकी रोज़ की ज़रूरतें पूरी हों और ज़िन्दगी बिना डर के सफलता की डगर पर आगे बड़ सके, बस यही चाहिए, मेरे और आपकी तरह. और यह तो हम सभी जानते हैं की सफलता का कोई मज़हब नहीं हुआ करता... यह पंक्तियाँ दर्द से शुरू हो कर दुआ तक पहुँचीं... कब सरहदों से  फ़ायदा हुआ इस ज़मीं को? अभी भी दिल नहीं भरा, बार-बार बाँट कर इस ज़मीं को? सरहदें जैसे बदनुमा दाग़ हैं  इस ज़मीं के चेहरे पर, खुदगर्ज़ी के चाकू से फिर ज़ख़्मी ना कर

और मिल मुझसे, और मुझे दीवाना बना

और मिल मुझसे, और मुझे दीवाना बना गर दीवानगी ही चलन है इस ज़माने का, मुझे अपना दीवाना बना कूचा-ऐ-दिल में कुछ कोने ऐसे भी हैं, जहाँ तेरा आना जाना नहीं है, वहां भी तो अपना आशियाना बना कभी करीब आता है, कभी खो सा जाता है, हर पल का हो साथ, ऐसा दोस्ताना बना ठिकाना हर सफ़र का, तू बन जाए, हर नज़ारा नज़र का, तू बन जाए, तू मुझे इस कदर दीवाना बना

जी करता है

एक ज़िन्दगी में कई जिंदगियां जीने का जी करता है, इस ज़िन्दगी में कई जिंदगियां छूने का जी करता है हँसते हुओं के साथ हंस लूँ, रोते हुओं के साथ रो लूँ, जो कहना चाहते हैं, उनकी सुनु, जो प्यार भरे बोलों को तरसें, उनसे बोलूं एक पल में सैंकड़ों पलों को जगमगाने का जी करता है खुद से किये वादे निभाने हैं, हज़ारों आँखों में सपने सजाने हैं, उम्मीद के आफताब से बादल हटाने हैं, मिलके ढूँढने खुशियों के खज़ाने हैं, एक चिराग से कई चिराग जलाने का जी करता है एक ज़िन्दगी में कई जिंदगियां  जीने का जी करता है, इस ज़िन्दगी में कई जिंदगियां  छूने का जी करता है 

आजा

फज़ल, माफ़ी, पनाह, और तेरी महोब्बत है, पा लूँ इन्हें, बांटू इन्हें, ये ही तेरी खिदमत है, चाहता तो ज़ाहिर हो जाता, मज़हबी दायरे मिटा देता, मगर, गुपचुप रहना तेरी फितरत है सबसे बड़ा है, तू हर जगह है, पर तेरे नूर के बावजूद, अँधेरा कुछ जगह है क्यूँ कमज़ोर पड़ रही तेरी इबादत है? इन अंधेरों में भी तारे टिमटिमाते हैं, तेरे बन्दे तेरा पैगाम बाँटते नज़र आते हैं, उनके ज़रिये इस जहाँ में तेरी शिरकत है फिर भी, आबरू लुटती है, भूक नहीं मिटती है, आंसुओं का मोल नहीं, बचपन की बोली लगती है बड़ रही अंधेरों की हिमाकत है बहुत हुआ, अब आजा  आजा घरों में, दिलों में, आजा दुखिया माँ के आंसूओं के लिए, आजा बिलखते बच्चों के लिए, आजा बेघरों का घर बन के, आजा बुजुर्गों की दुआ बन के, आजा बीमारियों से जूझते ज़माने के लिए, आजा नशे में डूबे हुओं को बचाने के लिए, आजा खुनी जंगो में अमन बन के, आजा इस सेहरा में चमन बन के आजा आजा, मुस्कुराहटें बांटने, आजा छोटे-बड़े का भेद मिटाने, आजा आजा के ये वक़्त बदल जाए, आजा, आजा, के फिर से ना जाए, आजा   आजा के तेरी बहुत ज़रुरत है

बड़ी कमाल चीज़ हैं हमारी आँखें!

कितनी भी कोशिश करूँ, दूसरों की गलतियाँ ज़्यादा नज़र आतीं हैं और अपनी कम. अगर यूँ ही वक़्त बर्बाद करती रही तो एक दिन वक़्त ख़त्म ही हो जाएगा और जाने का वक़्त आ जाएगा, वक़्त रहते सुधर जाऊं तो अच्छा...  बड़ी कमाल चीज़ हैं हमारी आँखें, बक्श दें किसी को, बिलकुल नहीं, कुछ ज़रुरत से ज़्यादा देखती हैं, और कुछ बिलकुल नहीं, सड़क चलते, त्योरियां चड़ा लेती हैं, रास्ते का कूड़ा जब दिखता है, पर जो गन्दगी हम फैकें, उससे इन्हें कहाँ फर्क पड़ता है? हमारे कचरे में बदबू...? अजी, बिलकुल नहीं! ज़रा ज़रा सी गलतियां दिखती हैं सबकी, नज़र रहती हर कमजोरी पे उनकी कभी अपने गिरेबान में झांकें...?  अरे, बिलकुल नहीं! यह आधा अंधापन, अजीब किस्म का मर्ज़ है, दूसरों में बुराई देखना, यह समझें, इनका फ़र्ज़ है, इन आखों को समझाना आसान नहीं,  जी, बिलकुल नहीं! खुल जाएं ये  बंद होने से पहले, खुदा का नूर  ज़रा इन्हें छूले, वरना बहशत में दाखला...? ना, बिलकुल नहीं!

टूटे रिश्तों के टुकड़े

रिश्ते हंसातें हैं, यही दिल दुखाते भी हैं, कभी निभ जातें हैं आखरी सांस तक, कभी पल में चटकते भी हैं कभी जन्मों के, रस्मों के रिश्ते सवाल बन के रह जातें हैं, तो कहीं बेनामी, मुंहबोले रिश्ते, हर सवाल का जवाब बन जातें हैं रिश्ता रिश्तेदारों से नहीं, दिल से होता है, निबाह इनका एक अकेले से से नहीं मिल के होता है ढोओं ना रिश्तों को जी लो इन्हें , उधड़े जो ज़रा भी यह प्यारे रिश्ते, वक़्त रहते सी लो इन्हें रिश्ते टूट तो जातें हैं, पर कुछ टुकड़े दिल में छोड़ जातें हैं, कुछ लोग रिश्तों के मोहताज नहीं होते रहे ना रहे रिश्ता, वो दिल में रह जातें हैं

माफ़ी को पनपने क्यूँ नहीं देते?

गलती से फिर एक ब्लॉग  पढ़ा  जिसमें दुसरे समुदाय को नीचा दिखाने के लिए जानकारी दी गयी थी. जानकारी दिखाने का उद्देश्य भी पूरा होता नज़र आया... टिप्पणियों के रूप में दोनों समुदाय के लोगों ने एक दुसरे को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी....  दुखी मन में  कई सवाल उठे, जो यहाँ प्रस्तुत हैं.... इतनी नफरत  जाने कहाँ से लाते हैं? पता नहीं दूसरों को गिराते हैं, या खुद गिर जाते हैं? कहीं अपनी कमी छुपाने के लिए, दूसरों की कमी तो नहीं निकाला करते? या अपने डर भगाने के लिए, दूसरों को तो नहीं डराया करते? दूसरों के खोट निकालना  ज्ञान  है या मुर्खता? क्या इसी मुर्खता से अक्सर  पैदा नहीं होती है बर्बता?  ज़हर से भरी छींटा-कशी, ऐसे अलफ़ाज़ कहाँ से लाते हैं? इतनी कड़वाहट, हे इश्वर! मरने मारने का जज़्बा कहाँ से लाते हैं? कौन सा भगवान् है, जो खुश होता है यूँ? अगर दिल दुखता है उसका, तो खुदा चुप रहता है क्यूँ? माफ़ी को पनपने  क्यूँ नहीं देते? सौहार्द को दिल में धड़कने  क्यूँ नहीं देते? गले मिल जाओगे तो क्या चला जाएगा? नफरत का सिलसिला क्या यूँ ही चलता चला जाएगा...?