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गाँधी जी पूछ रहें हैं

गाँधी जी पूछ रहें हैं हमसे, कितनी दूर भागोगे मुझसे? कब तक ढूँढोगे दुश्मन यहाँ-वहाँ, जब वो  छिपा है खुद में? यह हिन्दू, वो मुसलमां, कर लो चाहे जितना, रोटी, नौकरी, इज़्ज़त, शौहरत, पा लोगे क्या आगे-ए -नफरत में? इंसान को कब तक, देखोगे मज़हब की हद तक? अरे, अब बस भी करो, अब सब्र ख़त्म हो रहा है मुझमें! क्या बचा है अब हमारा प्यार, माफ़ी, भाईचारा? सब हो गया है तेरा-मेरा, बस उलझे हैं तुझमें-मुझमें? सोचा था बढ़ जाओगे आगे, दुनिया के सब देशों से आगे, मगर, आज भी  सन अड़तालीस जैसे, गोली दाग रहे हो मुझमें? गाँधी जी पूछ रहें हैं हमसे, कितनी दूर भागोगे मुझसे? कब तक ढूँढोगे दुश्मन यहाँ-वहाँ, जब वो छिपा है खुद में?

नाराज़ समंदर

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एक नाराज़ समंदर मेरे अंदर रहता है, न प्यास बुझाता है, न डूबने ही देता है, न आँसुओं को बहने देता है, न पलकों को सूखने ही देता है...  https://www.pinterest.com/pin/180003316344469612/
मैं हथेलियों से रेत फिसलते देख रोती रही, और चाँद-तारे सारे उम्र भर साथ निभाते रहे...! 

आज की नारी

मै ज़िम्मेदार हूँ, मै ही कभी उस  बलात्कारी को  रोक नहीं पायी, चुप देखती रही, अपने चारों तरफ, आदमी का चिल्लाना, औरत के आदर को कुचलना, औरत हो कर औरत को दबाना, मैं ही अपने बेटे, नहीं सिखा पायी, औरत का सही आदर, घर में, बस में, सड़क पे, दूकान पे, हर शहर, हर तरफ, जाने कितनी बार, औरत को इन्साफ के लिए भटकते देखा, आँखों में आंसूं देखे, मगर देख कर भी अनदेखे कर दिए, उसकी दर्दभरी कहानी, सुन कर भी अनसुनी कर दी, कितनी बार, कितनी ज़िंदगियाँ, सिसक-सिसक के ख़त्म हो गयीं, मैं सोचती ही रही, दिल टूटा कई बार, मगर कुछ किया नहीं, जब खुद पर ज़ुल्म हुआ, तब ही किसी को सज़ा न दे सकी, सर झुका के दूर चली गयी, तो किसी और के हक़ के लिए क्या लड़ती, बस सोचती ही रही... हे, आज की नारी, तुझ को नमन, तू जो सड़कों पर उतरती है, बुलंद आवाज़ से ज़ालिम को ज़ालिम कहती है, नहीं डरती डंडो से तू, नहीं डगमगाती, उनके गंद उगलने से, नहीं हिचकिचाती, चाहे फिर वर्दी बीच में आये, नहीं इंतज़ार करती किसी लीडर का, बस चल पड़ती है, हक़ की लड़ाई में, खुद के और औरों के लिए हिम्मत से लड़ती है

दिल्ली की बिंदी

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साथ समंदर के सफर के बाद भी दिल्ली से ज़्यादा दूर कभी भी नहीं जा पायी! खाना रोज़ ही देसी पकता है, music/movies भी देसी चलती हैं. और दिन रात ट्विटर पर हिंदुस्तान की खबरें follow करती हूँ। मम्मी, भाई और दोस्तों से फ़ोन पर बात भी होती रहती है। मगर कभी-कभी यह सब कम पड़ जाता है।अपनी मिट्टी, अपने शहर की   बहुत याद आती है तो मैं यहीं   दिल्ली वाला माहौल create करने की कोशिश करती हूँ, देसी कपडे पहनके, खुद में वहां के लोगों तो ढूंढती हूँ... दिल्ली वाला सुरमा, दिल्ली का दुप्पट्टा, दिल्ली के झुमके, दिल्ली की बिंदी सब को साथ लेकर ख़ुद में छिपी दिल्लीवाली गुड़िया को पुकारती हूँ, वो मिल भी जाती है मगर बात नहीं बनती...  कोशिश करती हूँ पर वो बात नहीं बनती!  दिल्ली की ख़ुश्बू बस दिल में है महकती, परदेस की हवाएँ रूखी हैं बड़ी, कितने गुलाब खिला लो, पर वो बात ही नहीं बनती!  दिल्ली का सुरमा, ख़्वाब भी वहीँ से मँगवाता है, दिल्ली की चुनरिया, दिल में कोई और शहर बसने ही नहीं देती, दिल्ली की बिंदी ही कहाँ दिमाग़ में कुछ और आने देती है, ये दिल्ली की पैदाईश, दिल्ली भूलने ही नहीं देती!