देखूं, ज़िन्दगी कहाँ तक ले जाती है...
इस रचना ने समीर लाल जी की नयी किताब का शीर्षक याद दिला दिया, 'देख लूँ, तो चलूँ'... :-) समीर जी, cheating की कोशिश नहीं थी... देखूं, ज़िन्दगी कहाँ तक ले जाती है, चले चलूँ, जहाँ तक ले जाती है चाह कर भी लौटा ना जाए, बेदर्द, वहाँ तक ले जाती है चारों मौसम, सारे नज़ारे, हर एहसास, हर हाल में हमें तक-तक ले जाती है थकें भी हों तो बहाने से बुलाती है देखें इस तरह कब तक ले जाती है? हम भी चले जाते हैं, रुक के क्या हासिल? अपनी ही तो है, अपने ही घर तक ले जाती है मगर इस रस्ते में बड़े मोड़ लाती है, क्या-क्या बताएं किधर तक ले जाती है खेलों की शौक़ीन ज़िन्दगी, बाज़ कहाँ आती है? वफ़ा से मिलाती है कभी जफा तक ले जाती है बड़ी मुश्किल से मुलाकात कराती है उससे, बड़ी कोशिशों के बाद ये खुदा तक ले जाती है हर चार कदम पे गुलाब की पंकुड़ी मिल जाती है लगता है ये राह तुझ तक ले जाती है वो जो कभी किसी को सुनाई ही नहीं दी, अक्सर तन्हाई में उस 'आह' तक ले जाती है चाह कर भी लौटा ना जाए, बेदर्द, वहाँ तक ले जाती है ...