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Peace Calls: From Dreams to Death in Delhi

Peace Calls: From Dreams to Death in Delhi : Dreams, hope and aspiration followed by rape, assault and eventual death. We don't cry for every death. There are billions of people in thi...

बस यूँ ही

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बहोत कुछ जो दिल के बहोत करीब रहा, मुठ्ठी से रेत की तरह बस यूँ ही रिसता रहा, कदम बढ़ते रहे, कभी तेज़, कभी भारी, ज़ख्म कभी भरता रहा, कभी रिसता  रहा  मुड़ के देखा तो बहोत था जिसे सीने से लगाना चाहा, चाह सुबकती रही, सीना भी रिसता रहा  कभी ज़िद्द, कभी बचपना, कभी मजबूरी, कभी ताबेदारी, फ़ैसलों की शाखों से अंजाम-ए-ज़िन्दगी रिसता रहा  खूबसूरत है मुस्कराहट तेरी, कहके ज़माना हँसाता रहा, तन्हाई की गहराईयों में ग़म-ए-दिल कहीं रिसता रहा  काश बाँध तोड़ के बह जाता गुबार, पर नहीं, रात-ओ-दिन महीन सुराखों से बैरी रिसता रहा  हर पड़ाव पे मेरी हस्ती का कुछ सामान छुट गया, सफ़र के दौरान मेरा वजूद कहीं-कहीं रिसता  रहा   लिए दिल को हाथों में चलते रहे हम भी,  उँगलियों के बीच दरारों से लहू भले ही रिसता रहा  बेशक, वो कादिर रहा है मददगार हर कदम पे,  थामे रहा वो हाथ मेरा, हौसला जब भी रिसता  रहा 
रचतें हैं मज़हब मेरे नाम पे किस्म-किस्म के, पूछें तो मुझसे मेरा कोई मज़हब नहीं

Jyot Se Jyot Jagate Chalo - Sant Gyaneshwar 1964

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छोटी

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आभार गूगल  एक सहमी सी छोटी लड़की अक्सर मेरे पास आ जाती है, लोगों के बीच में छुपा लेती हूँ उसे  कभी अपनी हँसी के पीछे, कभी हाज़िर-जवाबी की ओड़ में, शायद ही कोई देख पाता  है उसे पर जब कभी अकेले में मिलती है तो हावी सी हो जाती है ज़हन से छिपाये नहीं छिपती मेरे ख्यालों से खेलने लगती है, अगर-मगर की डगर पे ले जाती है, फिर मैं अपने ख्यालों का हाथ पकड़ के  विश्वास के शहर में ले आती हूँ, वो ना जाने कहाँ खो जाती है, या शायद गुड़िया बड़ी हो जाती है...

किस तरह समेट लूँ डब्बों में तुझको, ऐ घर, तुझे तो मेरी साँसों से लिपट कर चलना होगा...

दुआ

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आज से ठीक एक हफ्ते बाद हम पुएर्तो रिको से अमेरिका चले जाएंगे और ज़िन्दगी के एक नए अध्याय की शुरुआत करेंगे। ये वो वक़्त है जब दिल में कई तरह के ख़याल आते हैं, वाशिंगटन डीसी जैसे शहर में काम करना मतलब जीवन को नयी रफ़्तार से जीना  होगा। नए लोग, शायद नए लक्ष्य, न जाने क्या-क्या बदलेगा। मगर उसके क़दमों वही शान्ति, वही सुकून, वही तस्सली और वही स्पष्टता मिलती रहेगी। वो सुनेगा और जवाब देगा, और दुआओं का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा। इस सिलसिले में आपका सबका साथ और सबकी हामी मिल जाए तो फिर हर दुआ अपनी मंजिल पा ही लेगी। अमन के लिए दुआओं में  मेरी दुआ भी जोड़ ले, ऐ  खुदा, तू भी अमन ही चाहता है, तेरी चाहत में मेरी चाहत भी जोड़ दे, ऐ  खुदा  दुआ: गूगल फोटो  अमन की बस बात नहीं, हालात में असर ज़रा सा कर सकूँ, जब लगे के क़दमों तले ज़मीं सरक रही है, तेरे रहम पर भरोसा कर सकूँ  मेरी हर राह को तेरी तरफ मोड़ दे, ऐ खुदा  ग़म और गुस्से के ठीक बीच में, मोजज़ा-ए-हंसी बन के मिलते रहना, डर और नाउम्मीदी को हरा कर, तस्सल्ली बन के दिल में बसते रहना,  मेरे एहसासों की उम्र को ई
कभी लगता है यहीं मंज़िल है, कभी मंज़िल दूर तक नज़र नहीं आती… मानो मंज़िल ना हुई खुदा हो गयी...

मुझसे नाराज़गी, मुझसे मोहब्बत की वो कमज़ोर लौ है जो बुझ कर भी बुझी नहीं... तेरी नाराज़गी, नाराज़गी नहीं, मेरी उम्मीद है...

 

मौत

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यह रचना बड़ी मुशकिल  से लिख पाई और उससे भी ज्यादा मुश्किल था माकूल फोटो देखना और उन्हें यहाँ लगाना। मगर दुर्भाग्य से उन्हें ढूँढना बिलकुल भी मुश्किल नहीं था। गरीबों की बदकिस्मत जिंदगियों और उन जिंदगियों के बदकिस्मत अंजाम की कहानियाँ  और तस्वीरें इन्टरनेट पर बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं, और क्यूँ न हो जब सैंकड़ों गरीब और कमज़ोर हर रोज़ उत्पीड़ित किये जातें हैं… गरीब पर ज़ुल्म दुनिया में हर जगह पाया जाता है और अगर इस दौरान वो मर जाते हैं तो एक आंकड़ें में बदल दिए जाते हैं… और सही भी है एक नंबर के लिए अपराधबोध कम होता है… सब बड़ों की सहूलियत के लिए है…   जो आँकड़ा बन के रह गए, वो भी मेरी तुम्हारी तरह ज़िन्दगानियाँ थीं, जिनकी मट्टी को मट्टी भी न मिल सकी, उनके जिस्मों में भी रवानियाँ थीं वो बच्चे जो कभी बड़े ही नहीं हुए, क्या वो इंसानियत की नहीं ज़िम्मेदारियाँ  थीं? क्या कोई जवाबदारी है या नहीं हैवानियतों की जो कहानियाँ थीं? हाँ, जिए वो ग़रीबी में, मौत के बाद भी कमियाँ थीं, नाम ख़बरों में न आ सका, अखबारों में जगह की तंगियाँ थीं ऐसा अंजाम-ए-ज़िन्
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जब दिन थक कर रात की आगोश में सो जाता है, मेरे ख्यालों के जुगनू यहाँ वहां फुदकने लगते हैं…  जिन्हें पकड़ पाती हूँ, सजा लेती हूँ शायरी की बोतल में इस तरह के बसीरत*-ए-हयात बन के चमकने लगते हैं… बसीरत* = Insight

लौ-ए-उम्मीद

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वो  ख़ौफ़ -ऐ-सज़ा   में   बांधते   रहें   हैं   तुझे , तू   माफ़ी  की   खुली   हवाओं में   मिलता   रहा   है   मुझे a तेरे    नाम   के   कई   ठेकेदार हैं , ऊँची इमारतों में रहते हैं, तू   सर्दी   में   ठिठरती   रूहों   में   मिलता   रहा   है   मुझे किताबों   में   तू   लिखा   गया   है   बड़ ी   खूबी   से , मगर ज़िन्दगी   के  हादसों  में    सा फ़   दिखता   रहा   है   मुझे मेरे अपनों ने भी   इनकार किया मेरा , मगर तू   बड़ी   मुहोब्बत   से   अपनों   में   गिनता   रहा   है   मुझे रिवाज़-ओ-रिवायतों   में उलझी दुनिया समझे   ना समझे , तू ख़ामोश दुआओं में सुनता-ओ-समझता रहा है मुझे अब ग़मों की गुफाओं से डर  कम  लगता है, तू बन के अंधेरों में लौ-ए-उम्मीद मिलता रहा है मुझे यूँ ही नहीं छू लेते दिलों को यह लफ्ज़ , तू मेरी शायरी में मिलता रहा है मुझे
तू हर जगह है तो हर जगह है बस , ना किसी क़ायदे  में कैद है ना किसी की जागीर है 
वो उधार की बात करता है, कैसे उधार दूँ उसे जिसका क़र्ज़ अभी चुकाया नहीं वो क़र्ज़ जिसमें बखुशी डूबी है ज़िन्दगी, वो देता गया मुहोब्बत और कभी जताया नहीं

भाई

तेरी आँखों में आंसूं भी देखें हैं, और उनमें मुस्कराहट भी देखी है, दोनों तोड़ देतें हैं तेरी आखों के बांध और बहा लातें है बड़ी शिद्दत से तेरे जज़्बे को ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ तेरी बातें भी सुनी हैं, तेरी चुप्पी भी सही है, जब तू कहता है तो कहता है जब नहीं कहता तो बहुत कुछ कहता है ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ वो बचपन का दिन-रात का साथ भी जिया है, और सालों से सात समंदर की दूरी भी जी है, तेरे दिल के दर्द को अपनी आँखों में पाया है मेरे दिल के बोझ को तेरे कन्धों पे पाया है 

उसके क़दमों में सर मेरा, मेरा गुरुर है

चाहे ज़रा मैली भी हो, मुझे मेरी सच्चाई ही मंज़ूर है कहाँ तक साथ देगा धुंआ? एक दिन तस्वीर साफ़ होती ज़रूर है यूँ तो खुद्दार हूँ, सर उठा के चलने की आदत है, उसके क़दमों में सर मेरा, मेरा गुरुर है मज़हब तो समझता है, गर हमदर्दी भी समझ जाए, तो पिघल जाए वो रहनुमा जो अभी मगरूर है तहज़ीब-ओ-अदब जानता है सारे, माना इंसान को गले लगाने का क्या तुझे शहूर है? बैठ कुछ देर गरीब की कुटिया में और ढूंढ उसकी आँखों में, पा लेगा उस खुदा को जो तेरे महल से ज़रा दूर है
मुसलसल दर्द का ज़ाएका मीठा हो जाता है, ख़त्म हो जाए तो कुछ कमी सी लगती है सोचूँ खुशियाँ सारे जहां की मगर, ख्याल-ए-उल्फत नम हो जाए तो कुछ कमी सी लगती है
पापा ने अपनी वसीहत में शौक-ए-शायरी मेरे नाम कर दिया,  दुनिया वालों चाहो तो पढ़ लो मुझे, मैंने तहरीर-ए-ज़िन्दगी आम कर दिया

यादों की सलाखें

हाँ, शायद यह कविता एक बेवकूफ़ी सी है… गुज़र गए वक़्त को यूँ  ढूँढना नादानी ही है… मगर दर्द में कमी के लिए इस बेवकूफी को अल्फाज़ देना अकलमंदी भी है इसलिए बुन दी अपनी बेवकूफी लफ़्ज़ों में… कहाँ है वो हिंदुस्तान  जिसकी याद आती है  वो बचपन जो बन गया दास्तान  उसकी याद आती है  एक पापा थे, एक बेटी थी  दो तकिये थे, कुछ कहानियां थी  कहानियों में नसीहतें थीं  राह-ए -हयात की निशानियाँ थीं  अलग सा था वो अंदाज़-ए -बयां   जिसकी याद आती है  जो मींचलीं उन्होंने हमेशा के लिए, ढूँढती हूँ वो आँखें, अधूरी सी लगती है दिल्ली अब, टूटती ही नहीं यादों की सलाखें, तुम्हारी डांट और तुम्हारी मुस्कान  सबकी याद आती है  चेहरे बदल गए हैं, महफिलें बदल गयीं हैं  सड़कें तो आज भी वहीँ हैं, बस मंजिलें बदल गयी हैं, कहाँ गयी वो माई की दुकान, उसकी याद आती है  वो हिंदुस्तान कहाँ है, जहाँ पापा मिल जाएँ  जहाँ मेरी यादों की तस्वीरों को  ज़िन्दगी मिल जाए, सीने में है जो हिंदुस्तान, उसकी याद आती है 
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यादों की सड़कों पर हिंदुस्तान का सफ़र आसान हो जाता है, अक्सर शहर-ए-माज़ी में कुछ पल अपनी सरज़मीं पे जी लेती हूँ  यादें 
खुदा से और खुद से गुफ्तगू में वक़्त गुज़र जाता है, तन्हाई से रूबरू होने का मौका ही नहीं  मिलता...  

क्या कहिये

जो रंजिश भी मोहब्बत से करे, उस दिल की क्या कहिये जो सज़ा दिलवाए माफ़ी में भिगो के, उस वकील की क्या कहिये जो जफा किये जाए दिल में दर्द लिए, उस ज़लील की क्या कहिये जो सहमी रहे दिल के तहखाने में, उस दलील की क्या कहिये जो मिल भी जाए और पाने की जुस्तुजू भी रहे, उस मंजिल की क्या कहिये जहाँ मेहमान भी आप ही हों और मेज़बान भी, उस महफ़िल की क्या कहिये  जो डूब कर ही नसीब हो, उस साहिल की क्या कहिये
कुछ अलफ़ाज़ बिखरा दिए थे यूँ ही,  क़द्रदानी तो बस करम है आपका... :-)

नींद

रोज़ रात आती है मुझे सुलाने, पर हार जाती है ख्यालों के आगे, फिर नींद आती है लंगडाती हुई, जब दिल-ओ-दिमाग थक जाते हैं सवालों के आगे….  नींद छिप जाती है जब शायरी मुझ से मिलने आती है,  कैसे समझाऊं इसे इतनी बेलज्ज़त भी ख्यालों की महफ़िल नहीं होती 

नदी हूँ

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थम जाऊं, पहाड़ नहीं हूँ, नदी हूँ, बहती चली जाती हूँ, मायूसी का जोर नहीं चलता ज़रा देर, उम्मीद का दामन थामे चली जाती हूँ…. Ganga River (photo from google) पत्थर की ताकत नहीं मुझमे, हाँ, प्यास बुझानी आती है, टूटा नहीं करती, मगर सिम्त-ए-धारा बदलनी आती है कभी धीमे से कभी कल-कल चली जाती हूँ… मेरे हिस्से में भी कंकड़ हैं जल्दबाज़ी में अपने साथ बहा लाती हूँ, जब थम-थम के बहती हूँ, कुछ और निर्मल हो जाती हूँ, केफ़ियत-ओ-कमियाँ लिए चली जाती हूँ… प्यार की बारिश मुझे छू ताज़ा कर जाती है, पर यह बारिश ही कभी कभी सैलाब भी दे जाती है ऐसे में दुखती-दुखाती चली जाती हूँ… ना बनूँ बरकत तो बेकार है मेरा बहना , ना रुकूँ किसी सरहद पे, उस दरिया तक है मुझे बहना, पी से मिलने की चाह में बही चली जाती हूँ.... सबकी रहते हुए, सिर्फ़ उसकी होना चाहती हूँ, कुछ और मिले न मिले मुझको, इस 'मैं' को खोना चाहती हूँ, 'मैं' नहीं पर अक्स दिखे बस तुम्हारा … यह अरमान लिए चली जाती हूँ…
ज़रा सा ख़याल दिल दुखा के गुज़र गया, दर्द है के बस वहीँ ठहर गया….  फिर दर्द को गूंद के  बनायी  मुस्कराहट, बड़ा पुराना है, नहीं ये हुनर नया...

हम होंगे कामयाब!

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डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग, को जन्मदिन की शुभकामनाएं! गाँधी जी जिनके प्रेरणास्रोत थे…