तेरी रज़ा की बिनाह क्या है?
क्यूँ यह मसला उलझता जाता है? तेरा रहम वक़्त-बे-वक़्त कहाँ गुम हो जाता है? जब झुलसते हैं आग में मकां, तब बरसता हुआ बादल क्यूँ नहीं आता है? ख़ाक में मिला दिया जाता है जब कोई मजबूर, काइनात को उस पे तरस क्यूँ नहीं आता है? http://islamizationwatch.blogspot.com/2010/04/bangladesh-tells-pakistan-apologise.html कभी ज़र्रे को सितारा बना देता है, कभी इंसान का मोल ज़र्रे से भी कम नज़र आता है कुछ इंसानों को फरिश्तों की फितरत बक्शी है और कुछ इंसानों में इंसान भी नज़र नहीं आता है कहीं तेरी रौशनी भिगाती है सारा आलम फिर कुछ अंधेरों से तेरा नूर क्यूँ हार जाता है? जहाँ से मंजिल सीधे नज़र आने लगे वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है? तेरे होने पे या तेरी ताकत पे शक़ नहीं है कोई, तेरी रज़ा की बिनाह क्या है, ये समझ नहीं आता है आजा या बुलाले के रूबरू गुफ्तुगू हो अब इशारों से इत्मिनान नहीं आता है