संदेश

नवंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कौन कौन हूँ मैं?

अक्सर सोचती हूँ, क्या थी, कैसी हूँ अब, क्या ऐसी ही रहूंगी आने वाले कल में… क्यों मेरे संगी साथी इतने अलग-अलग हैं, डरती हूँ अपने अस्तित्व के लिए मगर चलती चली जाती हूँ विभिनता की ओर और समेटती रहती हूँ विभिनता अपने अन्दर… फिर याद आता है की वो भी तो अलग-अलग रंग में रिझाता है दुनिया को… साहस से भर जाती हूँ तब… शायद इस विभिनता में उस 'एक' से मिल जाऊं एक दिन…. कितनी सारी हूँ मैं, कौन कौन हूँ मैं? सच हूँ, कभी झूठ, कभी मौन हूँ मैं कुछ अपना सा हर जगह मिल जाता है मन मेरा हर जगह घुलमिल जाता है कैसे कहूँ, कौन हूँ मैं? अपनी जड़ों से जुड़ी रहना चाहती हूँ, असीम समीर सी बहना चाहती हूँ, आवारगी या बंधन हूँ , कौन हूँ मैं? खुदा की मुहब्बत में मज़हब से भागती हूँ, कभी डर के तो कभी दलेरी से भागती हूँ, कायर या इमानदार हूँ, कौन हूँ मैं? रिश्ते बना लेती हूँ कोई मुल्क हो, कोई तहज़ीब, वो अमल में जुदा सही, दिल के कितने क़रीब, अजीब या मुनासिब हूँ, कौन हूँ मैं? मुख्तलिफ माहोल में रम जाती हूँ, बचपन की यादें भूला नहीं पाती हूँ, माज़ी हूँ या आज हूँ, कौन हूँ मैं? कभी बहन हूँ अफ्रीकन की,

मम्मी

मम्मी के लिए कुछ मुक्कमल लिखना नामुमकिन है... कहीं न कहीं कोई न कोई कमी रह ही जाएगी... कुछ कहने की कोशिश करूँ भी तो कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ ख़त्म, यह नहीं पता... शुरुआत कुछ सवालों से कर रही हूँ.... उसी से पूछ कर... तुम्हारे बारे में क्या लिखूं? तुम्हारी डांट या मोहब्बत लिखूं? वो मार लिखूं जो अब तक राह दिखाती है, या मार के बाद रोते हुए गले लगाने की आदत लिखूं? बच्चों के साथ तुम्हारा प्यार लिखूं, या बुजुर्गों की खिदमत लिखूं? तुम्हारे हाथ की अरहर की दाल या पौधीने की चटनी, या फिर ज़िन्दगी में तुमसे बढती लज्ज़त लिखूं? बरकतों की पोटली लिखूं, या कुदरत की इनायत लिखूं? तुम्हारी सादगी लिखूं, या उस सादगी में छिपी तुम्हारी ताकत लिखूं? चालीस साल के हमसफ़र के जाने का ग़म लिखूं या उसके चले जाने के बाद तुम्हारी हिम्मत लिखूं? बेदाग़ आँचल सी उम्र लिखूं, या ज़िन्दगी भर की इबादत लिखूं? आई लिखूं, मम्मी लिखूं, प्यारी माँ लिखूं, या बस खुदा की सूरत लिखूं?  Posted on 'Pyari Maa' Tuesday, February 22, 2011 ( http://pyarimaan.blogspot.com/2011/02/blog-post_8459.html )

आओ, सभी हाथ बढाएँ!

पिछले दस सालों में मुझे दुनिया के कई देशों में काम करने का मौका मिला. तरह तरह की चीज़े देखीं, अलग-अलग संस्कृति देखी. मगर कोई भी देश हो, कोई भी संस्कृति, गरीबी की मार जिस पे पड़ती है, उसके चेहरे पे वही मजबूरी, वही  उदासी देखी. मगर जब भी उनके साथ काम किया, थोड़े में ज़िन्दगी जीने की नसीहत पाई, दुआएं पायीं. हम सब जानते हैं की दुनिया की अधिकतर समस्याओं की जड़ गरीबी है मगर फिर भी गरीबी को जड़ से ख़त्म करने में हम असमर्थ रहे हैं… मान लेते हैं की हम सारी दुनिया की गरीबी ख़त्म नहीं कर सकते मगर हम अपने आसपास की गरीबी को ज़रूर आड़े हाथों ले सकते हैं… चलिए, फिर देर किस बात की है? :-) गरीबी को कैसे हराएँ? आओ, सभी हाथ बढाएँ! भीख को मदद में बदल सकें तो बात बने आओ, फैली हथेली को सहारा देकर उठाएं अनपढ़ हैं, अयोग्य नहीं, आओ, मिलके हर एक को पढ़ाएं क, ख, ग, में मन नहीं लगता, कोई बात नहीं, पढ़ाई नहीं तो कोई हुनर सिखलाएँ देखो, वो थक गएँ अकेले बोझ उठा उठाके, आओ, गरीबी के खिलाफ मिलके जुट जाएं कब तक आँख चुराएँगे उन भूखी आँखों से? आओ, अब रोटी बाँट के खाएँ गरीबी पे ग़ालिब होने का एक ही तरी

मेरे बेटे

तू नज़र आता है, तो हर ग़म कमतर नज़र आता है,   मेरे छोटे से फ़रिश्ते, तेरे चेहरे पे, खुदा का नूर नज़र आता है    तेरी मासूमियत से बढकर कुछ नहीं, तेरा भोलापन हर शै से बेहतर नज़र आता है   तेरी हंसती आँखों में बसती है मेरी दुनिया जहां हर सू प्यार ही प्यार नज़र आता है    तुझे ज़रा कुछ हो जाए तो थम जाती है ज़िन्दगी, तेरी शरारतों में मुक्कमल मेरा संसार नज़र आता है    सोचती हूँ जो भूल गया ये दिन तू बड़े हो कर, फरमान-ऐ-मौत सा तेरा इनकार नज़र आता है   देखा है उस माँ को जो अपनी औलाद से जुदा हुई  उसका कलेजा कतरा-कतरा, ज़ार-ज़ार नज़र आता है    ये दुआ है तेरे लिये, जो देखे तुझे वो कहे, खुदा का अक्स तेरे चेहरे पर नज़र आता है    औरत हूँ कई रिश्ते और रस्में निभाती हूँ, मगर सबसे खूबसूरत माँ का किरदार नज़र आता है    'प्यारी माँ' पर जनवरी १२, २०११ को प्रकाशित ( http://pyarimaan.blogspot.com/2011/01/blog-post_12.हटमल )