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तू हर बार मिला है मुझको!

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कई रास्तों पे सफर किया है मैंने, दरिया का किनारा हो, या समंदर की गहराई, लम्बी-लम्बी सड़कें हों, या बहती नदी, अकेला रास्ता हो, या साथ में कोई, रात अँधेरी हो, या हर तरफ रौशनी, माहौल ग़मगीन हो, या राहें हों मुस्कुरातीं, अपनों का साथ हो, या अजनबी से दोस्ती, ख़ाली हाथ सहमे हों, या जेबें हो खनकती, बारिशों की गीली बुँदे हों, या ठिठरती हो सर्दी, पतझड़ का सूनापन हो, या चमकते सूरज की गर्मी, जब वो मुझे बारबरा बन के मिला: हैती - दिसंबर २०१५  हवा का झोंका बन के, तपती गर्मी में मिला है मुझको, पतझड़ में वो आख़री पत्ता बन के, डाली पे झूमता मिला है मुझको, सूरज की हिचकिचाती किरण बन के, कांपती ढंड में मिला है मुझको, मज़बूत झाड़ी बन के, फ़िसलती पहाड़ी पे मिला है मुझको, मुस्कुराहटों की गर्माइश बन के, उलझनों की बीच मिला है मुझको, मुख़्तलिफ़  शक्लों में मेरा हमदर्द बन के, बोझिल रास्तों पे मिला है मुझको, कैसा भी वक़्त हो, कोई भी हालात, तू मेहरबाँ बन के मिला है मुझको, कितना भी मायूस अँधेरा हो, तू हर बार उम्मीद बन के मिला है मुझको! 
नहीं शिकायत किसी मज़हब से मुझे, बस कोई खुदा को अपनी जागीर न समझे, हर इंसा को जिसने बनाया, उसे बस अपनी बातों-ओ-किताबों में ही हाज़िर न समझे 

आओ लौट चलें

कई न्यूज़ चैनल बदल के देख लिए, देश की हवा कुछ-कुछ बदली-बदली सी लगती है। ऐसा नहीं है  इस तरह के हादसे पहले नहीं हुए, आज भी याद है १९८४ की बर्बरता या गोधरा की मार्मिक कहानियाँ। मगर इस तरह आये दिन धार्मिक कट्टरता के किस्से पहले कभी नहीं सुने। यहाँ तक के भारत के  राष्ट्रपति महोदय  ने भी अपनी चिँता व्यक्त करी है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सवाल उठाये जा रहें हैं। बड़ा अजीब लगता है जब भारत के बारे में ऐसी बातें कही जाती हैं क्यूंकि यहाँ तो, कुछ अपवादों को छोड़, सदियों से तरह-तरह के धर्म के लोग मिल-जुल के रहते रहें हैं और हम जानते है के रहते रहेंगे भी :-) बस आजकल मन कुछ दुखी है. …   यह ख़बरें क्यों जल रहीं हैं? लफ़्ज़ों की  तलवारें  क्यों चल रही हैं? क्या उजड़ रहा है चमन धीरे-धीरे? नहीं, मेरा हिंदुस्तान हार नहीं सकता भाईचारे को नफ़रत पे वार नहीं सकता, नयी हवा से लड़ रहा है वतन धीरे-धीरे!  हाँ, फ़ूलों  के रंग-ओ-खुशबु जुदा हैं, मगर सब ही खूबसूरती-ए-गुलिस्तां हैं, बात इतनी भी पेचीदा नहीं, समझेगा सनम धीरे-धीरे  यह जज़्बात जिन्हे भूख है दरिंदगी की क्या इनसे क

सीरिया!

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पिछले चार सालों से सीरिया में humanitarian crisis चल रहा है मगर हमारे world leaders हाथ पर हाथ रख कर बैठें हैं. अगर आप अपनी जान बचा कर अपने  देश से निकल आएं तो आपको शायद रिफ्यूज मिल जाए मगर गारंटी कोई नहीं है! UN Security Council की तरफ से आज तक कोई ठोस कदम नहीं लिया गया है. कितने शर्म की बात है की अन्याय बिना किसी रोक-टोक के चल रहा है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय गहरी नींद सो रहा है…  यह कैसा जहाँ हैं, जहाँ  बिलखते बच्चोँ की आवाज़ पर कोई नहीं उठता? इतनी नींद के दिन के उजाले में भी, लुटती आबरुओं की आवाज़ पर कोई नहीं उठता!  सब सोये हैं मुख्तलिफ नशों में धुत्त, यहाँ गिरती लाशों की आवाज़ पर कोई नहीं उठता! आँख गर खुल भी जाए तो करवट बदल लेते हैं, मासूमों पे बरसती हुई गोलियों की आवाज़ पर कोई उठता!  नहीं जानते के यह आग हमारा घर भी जला सकती है, उस इलाक़े में जलते हुए शोलों की आवाज़ पर कोई नहीं उठता!  खौफ और लाचारी में हज़ारों बेघर हों तो हों, ढहते हुए मकानों की आवाज़ पर कोई नहीं उठता! दावा ये के रहनुमा हैं दुनिया भर के, मगर

दिल्ली के रंग

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सभी को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें!  फोटो: Google  देखा है दिल्ली को बचपन से, बड़ो से सुना है, किताबों में पढ़ा है, बड़ी अदा से सलाम करती है, हर आने वाले को, जब तक हद से न गुज़र जाए, बड़े सब्र से सहन करती है, सियासत के हर पैंतरे को, देख चुकी है, ताकत की कई शक्लें, सुन चुकी है, सियासत की कई ज़बाने, बड़ी शातिर है, तमाशे के गुज़र जाने का इंतज़ार करती है, चाहे कितना भी  डमरू बजा लो, नहीं क़ैद कर पाओगे इसकी रूह को, न पोंछ पाओगे, इसके माथे से इंकलाब को, न तोड़ पाओगे, एकता के धागों को, चूड़ियाँ तो हर जगह रंग-बिरंगी होती हैं, अरे, इसकी तो मिट्ठी भी, कई रंगों के ज़र्रों से बनी है, जाने कहाँ-कहाँ की धुल, मिल चुकी है इस ज़मीन में, यह दिल्ली है, खूबसूरत गुड़िआ सी दिखती है, मगर हिंदुस्तान की शान में, सबसे बहादुर वीरांगना है ये, मत उलझो इससे, यह जान पे खेल जाएगी, अपने हर रंग के लिए, हाँ, अगर सवांरोगे इसके रंग-रूप को, तुम्हें सर पे बिठा लेगी, बस, भूल न जाना साहब, लालकिले से जो तिरंगा फहराता है, आज भी उस में,

ऊँचाई

अक्सर हवाईजहाज़ की खिड़की से, कोशिश करती हूँ, नीचे ज़मीन पे ढून्ढ सकूँ, कहाँ एक देश की सीमा ख़त्म हुई, कहाँ दुसरे की शुरू, सरहदें कुछ ठीक से दिखाई नहीं दीं कभी, जब कोई शहर सा नज़र आता है, घरों में कोई फ़र्क़ नहीं दिखता, कौन सा हिन्दू का है या   कौन सा मुस्लिम का, जानती हूँ, समझती हूँ, वहाँ नीचे, सरहदें हैं, हिन्दू और मुस्लिम के घर भी  अलग-अलग से दिखते होंगे, मगर इस ऊँचाई कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं दिखता, नदियाँ, पहाड़, वादियां,  ख़ाली ज़मीन या फिर उस पर बनी  सड़के और बिल्डिंगें दिखती हैं, और कभी-कभी तो कुछ भी नहीं दिखता, बादल सब छुपा देतें हैं, लगता है यह बादल भी इतने फ़र्क़ देख नहीं पाते, तभी तो बरसते हैं सब पर, हिन्दू के लिए सोम और  मुस्लिम के लिए जुम्मे का इंतज़ार नहीं करते।  फिर सोचती हूँ, इतनी सी ऊँचाई से, ज़मीनी फ़र्क़ इतने फ़ीके हो जाते हैं तो, वो जो सबसे ऊँचा है, उसे कितने फ़र्क़ नज़र आते होंगे, और कौन-कौन से फ़र्क़ों पे वो तवज्जो देता होगा, किसके घर में कौनसी 

शायद

एक अजीब सी ख़ामोशी है आज सीने में, या ज़िन्दगी के शोर-ओ-गुल में दिल सुन्न हो गया है शायद, होठों पे मुस्कराहट तो है, आँखों तक का रास्ता खो गया है शायद...

सुराख़

तुम्हारे जाने के धमाके ने, मेरे घरोंदे में, कई छोटे-बड़े सुराख़ बना दिए थे, दूसरों के प्यार के सीमेंट से, कुछ भर गए हैं, मगर, कुछ रह गए हैं, न वक़्त, न साथ किसी का, भर पता है उन सुराखों को, आज भी तुम्हारी यादों की, नसीम बहती है वहाँ से, तुम्हारी बसीरत की रौशनी, पहुँचती है मुझ तक वहीँ से, उन्ही सुराखों से, तुम हाथ बढ़ा के, छू लेते हो मेरे कंधे को, हर तूफ़ान के बीच में, भर देते हो मुझे  तसल्ली से, फिर याद आतीं हैं, तुम्हारी मुस्कुराती आँखें, तुम्हारी गज़ब बातें, ले जाती हैं मुझे, उन सुराखों के ज़रिये, इन दीवारों के बाहर, खुली हवाओं में, मेरी सोच को पतंग बना देती हैं, मेरे नज़रिये को कुछ ऊँचा कर देती हैं, लोगों में फ़र्क़ तो दिखते हैं, मगर इन्द्रधनुष की तरह, तुम एक बार फिर, इंसानियत का सबक़ याद दिला देते हो, मेरे मज़हब को फिर खुदा से मिला देते हो, काश यह सुराख़ यूँ ही बने रहें, मुझे तुमसे मिलाते रहें, तुम ज़िंदा हो, पापा ये याद दिलाते रहें!

ये यादें

इन यादों को  कहाँ रखूं? खुशियों में, या ग़मों में? ये ऐसी जगह पड़ी हैं, जहाँ कभी धुप पड़ती है, तो कभी घनी छाया, कभी सो जातीं हैं, रात की गहराई में, तो कभी मचल के उठ जातीं हैं, बारिश की बूंदों से, फिर याद आया के ये यादें  बोहोत दूर हैं मेरी पहुँच से, यह यूं ही पड़ी रहेंगी  इसी जगह, सोएंगी-जगेंगी इसी तरह, जब चाहे झकझोरेंगी मुझे, वक़्त-बेवक़्त इसी तरह।  

गुज़ारिश

कहते हैं कुछ बातें अनकही ही अच्छीं, कुछ एहसास बिन इज़हार ही बेहतर :-) मुझे माफ़ कर देना, गर लफ्ज़-ओ-आवाज़ न दे सकूँ तुम्हें, पड़े रहना मेरे ज़हन की तहों में, कट जाएगा वक़्त करवटें बदलते, मुस्कराहट की ओट में ही रहना,  बाहर झांकों जो कभी चेहरे से, बिखर जाना हवा में यूँ, होठों पे आना तो आह बन के, पलकें ओढ़े ही रहना, गर उतर आओ कभी आँखों में, जो न रह सको दिल में और ज़्यादा, गालों पे लुढ़क जाना आबशार बन के, तुम्हें कहना, तुम्हें सहने से भी मुश्किल होगा मेरे एहसासों दम तोड़ देना, ज़बाँ पे अाने से पहले

और सफर चलता रहा…

इस रचना में अपने करियर की कुछ झलकियाँ प्रस्तुत करी हैं. इन यादों को शब्दोँ में संजोना ज़रूरी है इस से पहले के ये खो जाएँ। छोटी-छोटी पँक्तियों में कई तरह के अनुभव छुपे हैं। १२ साल पहले गुजरात के भुज में भूकंप पीड़ितों के साथ काम करने के लिए रेड क्रॉस के साथ जुड़ी। तब यह नहीं जानती थी की बारह साल और दुनिया के १०० से ज़्यादा शहरों में काम करने के बाद भी में रेड क्रॉस के साथ जुड़ी रहूँगी। इस दौरान कई प्राकृतिक आपदाओं के अलावा कश्मीर और नक्सली इलाकों में भी काम किया। इन सब अनुभवों में सबसे मुश्किल था २००४ में  चेन्नई के कुम्भकोणम में उन माँओं के साथ काम करना जिनके बच्चे स्कूल में आग से जल के ख़त्म हो गए थे। उस समय मेरा बेटा भी लगभग उसी उम्र का था जिस उम्र के बच्चे उस भयंकर आग में जल गए थे। हर माँ में मैं अपने आप को देखती थी। कोई भी त्रासदी क्यों न हो, महिलाओं और बच्चों पर इसका असर और भी अधिक होता है। कश्मीर की 'half widows' की दुखभरी दास्ताँ youtube पे देखि जा सकती है। इंसान के कई रंग देखे, दर्द के कई रूप देखे मगर जीवन को हमेशा मौत से ज़्यादा ताकतवर देखा। इंसान के गिर के उठने के

मुझे समझ न सकेगा तू

 बैसाखी की ज़रुरत पड़ती है  मेरे होठों को अक्सर , मेरी आँखें न पढ़ सकेगा तो मुझे समझ न सकेगा तू.… लफ़्ज़ों में न बयाँ हो पाएगी कहानी मेरी, मेरी ख़ामोशी न सुन सकेगा तो मुझे समझ न सकेगा तू.… सिमटे हुए हैं  एहसास-ओ-ख़्वाब  मेरे अंदर, मेरे ज़हन की परतें न खोल सकेगा तो मुझे समझ न सकेगा तू.…  न जता पाएँगे  मेरे हौसले  अपनी गुंजाईश, मेरे ज़ख्मों के निशां न गिन सकेगा तो मुझे समझ न सकेगा तू.…  तोला गया है कई पैमानों में मेरा वजूद  उसकी रेहमत न देख सकेगा तो मुझे समझ न सकेगा तू.…