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मुस्कुराने दो

नहीं कहनी तकरीरें मुझको, बस संग सबके मुस्कुराने दो हिन्दू को, मुसलमां को, ईसाई-ओ-यहूदी को, मेरे दिल के सुर्ख़ कोने में सुकूं से रहने दो नहीं जीतनी कोई बेहस मुझे, बस इन्सां को गले से लगाने दो मैं भी वाकिफ़ हूँ फ़र्क़ों से, मगर मुझे मुशबिहात में रम जाने दो मेरे पास भी बर्दाश्त नहीं हर एक के लिए, जिस-जिस को उसने बनाया, उनसे से तो दिल लगाने दो 

नज़रिया

इधर आजकल मन बहोत उदास सा है, मगर ऐसा नहीं है की खुशियाँ  नहीं हैं। कभी बीती यादेँ सताती हैं, तो कभी कुछ और :-) और दिल इतना निक्कमा है की बरकतेँ गिनना भूल कर हर छोटी बात पे हाय-तौबा मचाने लगता है.… ख़ुशी और ग़म, मोहब्बत और शिकायत, साथ साथ ही पलते हैं, खट्टे-मीठे जज़्बात, अक्सर साथ ही चलते हैं काश एहसासों को हम एक दुसरे से जुदा कर पाते , मगर ये एहसासात, अक्सर साथ ही उभरते हैं  भीगी आँखें जब मुस्कुराती हैं, तो गज़ब लगती हैं, उनकी नमीं में कई इज़हारात  अक्सर साथ ही झलकते हैं  न कोई वक़्त सिर्फ खुशनुमा होता है, न कोई लम्हा कतई ग़मज़दा, ज़िन्दगी में मुख्तलिफ हालात, अक्सर साथ ही पनपते हैं  सोचने लगो तो जैसे  ख़यालों की झड़ी सी लग जाती है, ज़ेहन से तरह-तरह के ख़यालात  अक्सर साथ ही गुज़रते हैं  इसलिए ज़रूरी है के  नज़रिया नज़ारे से बड़ा हो क्यूंकि, आबपाशी-ओ-सैलाब के बादल, हज़रात, अक्सर साथ ही बरसते हैं

सफ़र

कल फिर तुम मिले, बड़ा अच्छा लगता है तुमसे मिलके, मेरी दुनिया जैसे पूरी हो जाती है, मगर फिर सुबह हो जाती है, या आँख खुल जाती है, फिर तुम नहीं होते, दिल्ली भी नहीं होती, बस हक़ीक़त होती है, 'आज' होता है, सपनों में कल में लौटती हूँ, और नींद टूटने पर आज में, यह सफ़र थका देता है, पापा