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दिसंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ज़रा मुस्कुरा दीजिये....

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उदासी, गुस्से और अकड़ से ज़्यादा दोस्ती अच्छी नहीं होती, इनकी पकड़ एक मुस्कराहट से टूट जाती है और फिर माहौल बदलते देर नहीं लगती... मुस्कुराने के कई फायदे हैं, यह आपको ही नहीं सारे आलम को खूबसूरत बना देती है, आपकी रूह को सेहत देती है, दोस्ती को मजबूती देती है, चेहरे को रंगत देती है, नफरत की गिरह तोड़ती है. जब मुस्कराहट दिल से निकलती है तो दिल तक पहुँचती है.... हंस के उदासी हरा दीजिये, मसले को ना हवा दीजिये बस, ज़रा मुस्कुरा दीजिये http://dostishayaris.blogspot.com/2010/07/dil-ka-bazar-mian-dolat-nahi-dekhi-jati.html      यूँ खफ़ा क्या रहा कीजिये क्यूँ सभी को सज़ा दीजिये जी, ज़रा मुस्कुरा दीजिये  ये माहौल सजा दीजिये, सारा आलम जगमगा दीजिये यूँ ज़रा मुस्कुरा दीजिये आग-ऐ-रंजिश बुझा दीजिये गुफ्तुगू इस तरह कीजिये के ज़रा मुस्कुरा दीजिये मुश्किलों से यूँ लड़ा कीजिये शिकन को ना कोई जगह दीजिये हो सके तो, ज़रा मुस्कुरा दीजिये  दुश्मनों को भी शामिल किया कीजिये आप जब भी दुआ कीजिये खुदा के लिये ज़रा मुस्कुरा दीजिये माफ़ दिल से किया कीजिये, जब किसी से गिला कीजिये फिर ज़रा मुस्कुरा दीजिये ज

ख़ामोशी

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उनकी ख़ामोशी को समझना उनको समझने से भी मुश्किल काम है...  क्या है यह ख़ामोशी? क्यूँ ये सुनाई सी देती है? ख़ामोशी जितनी लम्बी हो उतनी ही तेज़ सुनाई देती है, मगर इसकी आवाज़ में लफ्ज़ नहीं होते, यह सुबकती है, मुस्कुराती है, बुलाती है, लौटा भी देती है, मगर इस उम्मीद में रहती है की शायद कभी मर मिटेगी और लफ़्ज़ों में बयां होगी...  ख़ामोशी में सब्र है, दर्द है , शरारत है, इकरार भी है, इसी से तकरार संभलती है, यही इज़हार-ऐ-तकरार भी  है ये पनाह देती है राज़-ऐ-दिल को, दिल पे ताला भी खुद है, खुद ही पहरेदार भी है  कभी गुनगुनाती है ग़ज़ल बन कर, कभी अंधेरों में खोया सूना दयार भी है कहते हैं, एक चुप सौ बातों पे भारी, मगर कभी शिकस्त-ओ-हार भी है चिलमन-ऐ-ख़ामोशी में छिपे हैं सैंकड़ों एहसास, जो पर्दाफाश होने को बेक़रार भी हैं सुस्त माज़ी को सुला लेती है अपनी गोद में,  कभी मुस्तकबिल के तूफ़ान की पयाम बार भी है http://www.layoutsparks.com/1/182242/waiting-alone-girl-sad.html यह वो दोशीज़ा है जिसे  इंतज़ार-ऐ- रिवायत-ऐ-वफ़ा है ख़ामोश है मगर टूट जाने को तैयार भी है  मुस्तकबिल = Future 

पहली मोहब्बत तो पहली ही होती है

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कोई कोई कविता बस आंसूओं के साथ झर-झर बह जाती है.... और शायद दर्द का कुछ हिस्सा भी अपने साथ ले जाती है... उंगली पकड़ के बचपन की मस्त दुनिया में ले जाती है... जैसे मेरी जड़ों में से कुछ मट्टी मेरे हाथ में दे जाती है.... कभी-कभी पुरानी तस्वीरों के ज़रिये माज़ी की सैर पे निकल जाती हूँ, उन पुरानी दीवारों के बीच उस दुनिया में, अपनी उस साइकिल पे घुमने निकल जाती हूँ पर अब सिर्फ साइकिल से काम नहीं चलता, नाव भी ढूँढनी पड़ती है, आंसूओं की एक लहर भी चलती हैं वहां पर, हिम्मत की पतवार चलानी पड़ती है याद है मुझे, जहां दीवारों से बाहर झाँकने की कोशिश हुई, वहीँ मेरी पहली मोहब्बत के माथे पे सलवटें हुईं पर ज्यूँ ही शरारतें अपने पंख समेटतीं, माथे से ज़रा नीचे आँखें मुस्कुराने लगतीं याद हैं जो झुमके मेरे लिये लाये थे तुम, वो कहानियां जो खुद ही बना लेते थे तुम, खट्टे-मीठे चुटकुलों से सबको हंसा देते थे तुम सच है, ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पे जीते थे तुम फिर यकायक, 'आज' नज़र से 'बीते हुए कल' को चुरा लेता है, पापा की हंसती हुई ऑंखें नहीं दिखती, पर बेटे का चेहरा मुस

नाराज़गी जितनी दिल में रखी जाए, उतनी ही भारी हो जाती है

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हम सभी कभी न कभी किसी न किसी पे नाराज़ हुए होंगे. पर कभी कभी ये गुस्सा हमारी ज़िन्दगी में, हमारे दिलों में, हमारे रिश्तों में या हमारे नज़रिए में रह जाता है. कभी रिश्ते खराब करता है कभी सेहत. यहाँ यही गुज़ारिश है की गुस्से से निजात पायें, जिन हालातों या लोगों की वजह से नाराजगी की शुरुआत हुई, उन्हें बदलने की कोशिश करें या हम अपना नज़रिया बदलने की कोशिश करें और कुछ काम ना आए तो अपना रास्ता बदल लें... माफ़ी को गले लगाना, गुस्से को गले लगाने से कहीं बेहतर है... नाराज़गी जितनी देर दिल में रखी जाए, उतनी ही भारी हो जाती है, दिल का बोझ बन जाती है, सूखी-सूखी ज़िन्दगी बेचारी हो जाती है  न जाने क्यूँ फिर भी  इस बोझ को दिल से लगाए रहते हैं, नाराज़गी की ता'बेदारी में सर को झुकाए रहते हैं  रूठना-मनाना जायज़ है थोड़ा सा गुस्सा, थोड़ी सी माफ़ी, ज़िन्दगी के ज़ाएके और मिजाज़  बदलने को काफी  मगर लम्बी नाराज़गी, ढेर सारा गुस्सा, ना सेहत, ना रिश्ते, ना दिल के चैन के लिये अच्छा  http://lifehacker.com/5614548/venting-frustration-will-only-make-your-anger-worse आँखें लाल, तमतमाता चेहरा, उखड

ऐसी अदा-ऐ-गुज़ारिश मुझमें है

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ये पंक्तियाँ हर उस दिल के लिए हैं जो ख्वाब देखता है एक बेहतर कल के लिए और उसे पूरा करने के लिए वो खुद ज़िम्मेदारी उठा लेता है... दूसरा कोई कदम उठाये या ना उठाये  वो पहला कदम उठा लेता है... और जब पहला कदम मजबूती और इमानदारी से बढाया जाता है खुदा के साथ-साथ कारवां भी साथ हो लेता है... मेरा ही कदम पहला हो, उस जहाँ की तरफ,  जिसकी ख्वाहिश मुझमें है  http://www.flickr.com/photos/31840831@N04/3200558333 जो ख्वाब उन सूनी आँखों ने देखा ही नहीं, उसे पूरा करने की  गुंजाइश मुझमें है  खुदा को आसमानों में क्यूँ ढूंडा करूँ? जब उसकी रिहाइश मुझमें है  एक कारवाँ भी साथ हो ही लेगा, ऐसी अदा-ऐ-गुज़ारिश मुझमें है खुदगर्ज़ी की लहर में बर्फ हुए जातें हैं सीने, दिलों के पिघलादे, वो गर्माइश मुझमें है  मेरे ख्वाबों, मेरे अरमानों के लिए औरों को क्यों ताकूँ?  इनकी तामीर की पैदाइश मुझमें है  मौत पीठ थपथपाए अंजाम-ऐ-ज़िन्दगी यूँ हो, खुद से ये फरमाईश मुझमें है  

गरीबी गरीब की किस्मत है या समाज की ज़रुरत?

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समाज में कई बुराइयां हैं, जिनमें से गरीबी भी एक है, मगर इसे एक आम इंसान ने शायद स्वीकार लिया है. तभी तो जब कोई बलात्कार होता है, या क़त्ल होता है तो काफी शोर मचता है, गुनाहगार को सज़ा मिले ना मिले ये और बात है. पर जब हम किसी को भीक मांगता देखते हैं, या किसी कमज़ोर व्यक्ति को सड़क पे सोता देखते हैं तो शोर नहीं मचाते... जब एक और गरीब ठण्ड से मर जाता है तो एक और नंबर की तरह दर्ज हो जाता है पर अखबार की सुर्खियाँ नहीं बनता. ऐसा क्यूँ होता है?  गरीबी गरीब की किस्मत है  या समाज की ज़रुरत? गरीबी नहीं तो, अमीरी चल सके दो कदम, उसकी ये जुर्रत? सब बराबर हो जाएंगे तो, क्या रह जाएगी लाला की औकात? मेमसाब की चिल्लर कहाँ जाएगी? पुण्ये के नाम पे कहाँ जाएगी खैरात? अमीरी-गरीबी मिट जाती तो  रह जाती सिर्फ इंसानियत, पैसे की ताक-धिन फीकी होती, नाचती फिर काबलियत! लम्बाई चाहे जितनी हो, सबका बराबर कद होता, धरती माँ के घाव भरते, पिता परमेश्वर गदगद होता   http://trendsupdates.com/indian-economy-continues-to-prosper-yet-indian-children-starve-to-death/ पर नहीं! गरीबी पलती है, अमीरी क