संदेश

जुलाई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं

चित्र
मैं नदी की तरह मुख़्तलिफ़ मुक़ामोँ से गुज़रती जाती हूँ, मुझे शीशे में उतारने की कोशिश न करो, कभी बूँद, कभी बादल, कभी दरिया, मुझे किसी एक रूप में सँवारने की कोशिश न करो...! 
जाने क्या चक्कर है, परदेस होते हुए जो रास्ता जाता है, उसपे दिल्ली से कराची का सफर, बड़ा छोटा हो जाता है।

कुदरत के सलीके

चित्र
बदल और नदी अच्छे लगते हैं, अपनी धुन में चलते हैं, मगर अपनी मंज़िल नहीं हैं भूलते। https://www.istockphoto.com/gb/photos/orange-sunset-over-river?excludenudity=true&sort=mostpopular&mediatype=photography&phrase=orange%20sunset%20over%20river बाग़ में पेड़ अच्छे लगते हैं, मस्त हवा में झूमते हैं, मगर अपनी जड़ों से हैं जुड़े रहते। https://stockarch.com/images/nature/plants/grove-tall-palm-trees-6000 चीं-चीं करते पंछी अच्छे लगते हैं, सारे एहसास चहचहाते हैं, मगर एक दूसरे से मिलके रहते। https://catherinejonapark.wordpress.com/2015/06/13/the-chirping-of-birds/ घांस में ये जुगनू अच्छे लगते हैं, स्याह अंधेरों में घूमते हैं , मगर  बूँद-बूँद  रौशनी बांटते फिरते। https://www.jsonline.com/story/news/local/wisconsin/2017/07/15/huge-summer-fireflies/465234001/ यह बारिश के छींटे अच्छे लगते हैं, बादलों की उँचाईओं में रहते हैं, मगर  प्यास बुझाने ज़मी पे बरसते। https://phys.org/news/2015-03-soil-moisture.html काश