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देखूं, ज़िन्दगी कहाँ तक ले जाती है...

इस रचना ने समीर लाल जी की नयी किताब का शीर्षक याद दिला दिया, 'देख लूँ, तो चलूँ'... :-) समीर जी, cheating की कोशिश नहीं थी... देखूं, ज़िन्दगी कहाँ तक ले जाती है, चले चलूँ, जहाँ तक ले जाती है  चाह कर भी लौटा ना जाए, बेदर्द, वहाँ तक ले जाती है  चारों मौसम, सारे नज़ारे, हर एहसास, हर हाल में हमें तक-तक ले जाती है  थकें भी हों तो बहाने से बुलाती है   देखें इस तरह कब तक ले जाती है? हम भी चले जाते हैं, रुक के क्या हासिल? अपनी ही तो है, अपने ही घर तक ले जाती है  मगर इस रस्ते में बड़े मोड़ लाती है,  क्या-क्या बताएं किधर तक ले जाती है  खेलों की शौक़ीन ज़िन्दगी, बाज़ कहाँ आती है?  वफ़ा से मिलाती है कभी जफा तक ले जाती है बड़ी मुश्किल से मुलाकात कराती है उससे, बड़ी कोशिशों के बाद ये खुदा तक ले जाती है  हर चार कदम पे गुलाब की पंकुड़ी मिल जाती है लगता है ये राह तुझ तक ले जाती है  वो जो कभी किसी को सुनाई ही नहीं दी, अक्सर तन्हाई में उस 'आह' तक ले जाती है   चाह कर भी लौटा ना जाए, बेदर्द, वहाँ तक ले जाती है ...

हिसाब कोशिशों का रखना फ़िज़ूल है

हर वो बादल जो छिपाता है उम्मीद-ए-आफ़ताब को, ज़मीन पे बहता देखोगे हर एक बूँद-ऐ-आब को, मायूसी समेट लेना चाहती हैं ज़िन्दगी की किताब को, बचा के रखना है इससे उस सुनहरे ख्व़ाब को इन्हीं चट्टानों में छिपा वो पत्थर भी है, जुस्तजू ढून्ढ ही लेगी उस नायाब को, तबाही के बाद भी तो फूटती हैं कोपलें, कोई बहार ढूंढ ही लेगी दिल-ऐ-बर्बाद को कब तक छुपेगा सलाम दुप्पटे में, एक दिन हवा कर देगी ज़ाहिर पर्दानशीं आदाब को हिसाब कोशिशों का रखना फ़िज़ूल है, मंजिल पाकर फुर्सत ही कहाँ कामयाब को

पापा के जूते

पापा के जूते हमेशा चमकते रहते थे, पलंग के पास बैठे-बैठे उनके तैयार होने का मुस्तैदी से इंतज़ार करते रहते थे, पापा गर घर पर हैं, तो जूते अपनी जगह पर, उनके होने का निशाँ हुआ करते थे, वैसे तो हमेशा वो अपने जूते एक ही जगह उतारा करते थे, कभी-कभी दूसरों की लापरवाही से, उनके जूते पलंग के नीचे चले जाया करते थे, बचपन में फट से घुटनों पे होकर, भाई और मैं नीचे से निकाला करते थे, पर जब हमारे कदम उनके जूतों से आगे निकल गए, जाने कैसे पापा उन्हें निकाला करते थे हाँ, हमेशा एक जैसे जूते ही खरीदते थे, बिना फीते के जूते पसंद किया करते थे, जब तक बहुत पुराने ना हो जाएं, नए नहीं खरीदा करते थे, जब कोई बीमार हो या मुश्किल में हो, जूतों को जल्दी से पहन निकल जाया करते थे, फिर धीरे धीरे जूते पहनना मुश्किल होने लगा, कभी-कभी चप्पल में चले जाया करते थे, पापा और चमकते हुए जूतों का साथ कम होने लगा अब पापा ज़्यादातर घर में रहा करते थे, जूते वहीँ बैठे बैठे उनका इंतज़ार किया करते थे फिर एक दिन उन्हें उनकी जगह से हटा दिया गया क्यूँकी उनकी की जगह पंखों ने ले ली थी...