आजा
फज़ल, माफ़ी, पनाह,
और तेरी महोब्बत है,
पा लूँ इन्हें, बांटू इन्हें,
ये ही तेरी खिदमत है,
चाहता तो ज़ाहिर हो जाता,
मज़हबी दायरे मिटा देता,
मगर, गुपचुप रहना तेरी फितरत है
सबसे बड़ा है, तू हर जगह है,
पर तेरे नूर के बावजूद, अँधेरा कुछ जगह है
क्यूँ कमज़ोर पड़ रही तेरी इबादत है?
इन अंधेरों में भी तारे टिमटिमाते हैं,
तेरे बन्दे तेरा पैगाम बाँटते नज़र आते हैं,
उनके ज़रिये इस जहाँ में तेरी शिरकत है
और तेरी महोब्बत है,
पा लूँ इन्हें, बांटू इन्हें,
ये ही तेरी खिदमत है,
चाहता तो ज़ाहिर हो जाता,
मज़हबी दायरे मिटा देता,
मगर, गुपचुप रहना तेरी फितरत है
सबसे बड़ा है, तू हर जगह है,
पर तेरे नूर के बावजूद, अँधेरा कुछ जगह है
क्यूँ कमज़ोर पड़ रही तेरी इबादत है?
इन अंधेरों में भी तारे टिमटिमाते हैं,
तेरे बन्दे तेरा पैगाम बाँटते नज़र आते हैं,
उनके ज़रिये इस जहाँ में तेरी शिरकत है
फिर भी, आबरू लुटती है, भूक नहीं मिटती है,
आंसुओं का मोल नहीं, बचपन की बोली लगती है
बड़ रही अंधेरों की हिमाकत है
बहुत हुआ, अब आजा
आजा घरों में, दिलों में, आजा
दुखिया माँ के आंसूओं के लिए, आजा
बिलखते बच्चों के लिए, आजा
बेघरों का घर बन के, आजा
बुजुर्गों की दुआ बन के, आजा
बीमारियों से जूझते ज़माने के लिए, आजा
नशे में डूबे हुओं को बचाने के लिए, आजा
खुनी जंगो में अमन बन के, आजा
इस सेहरा में चमन बन के आजा
आजा, मुस्कुराहटें बांटने, आजा
छोटे-बड़े का भेद मिटाने, आजा
आजा के ये वक़्त बदल जाए, आजा,
आजा, के फिर से ना जाए, आजा
छोटे-बड़े का भेद मिटाने, आजा
आजा के ये वक़्त बदल जाए, आजा,
आजा, के फिर से ना जाए, आजा
आजा के तेरी बहुत ज़रुरत है
टिप्पणियाँ
बुजुर्गों की दुआ बन के, आजा
बेहतरीन जज़्बा सुन्दर आहवान. सुन्दर रचना
यही तो मेरे मन में भी आता है...
मेरे ब्लॉग में इस बार...ऐसा क्यूँ मेरे मन में आता है....
आजा के तेरी बहुत ज़रुरत है...
lovely lines !
.
मज़हबी दायरे मिटा देता,
मगर, गुपचुप रहना तेरी फितरत है
कई अर्थों को अपने में समाये हुई रचना
ऐ खुदा तू अंजना जी की दुआ सुन ले.आमीन.
अंजना जी, सूफियाना ख़याल से लबरेज आपकी कविता पढते हुए हमने भी खुदा से दुआ मांग ली
आपकी पुकार में मैं भी अपना स्वर मिलाती हूँ !
एकमात्र सहारा है हम सभी का .बहुत बहुत आभार आपका इस पोस्ट को पढवाने का .दिल से बहुत बहुत दुआएं .