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आसमाँ भर लिया साँसों में, सितारों को दिल में बसाना था, आफ़ताब की रौशनी पीनी थी, सितारों का बस बहाना था... 

बदलो ये हवा!

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जब शब्दों की जगह आँसू  उभर आते हों तो कोई कविता या लेख लिखना मुश्किल हो जाता है।  कहने को बहुत कुछ है मगर सही शब्दों का चुनाव ही नहीं हो पा रहा है।  बलात्कार या फिर कहूं की बलात्कारों की न ख़त्म होने वाली दर्दनाक दास्तान बन गया है हिंदुस्तान! आप जितना चाहें योगी अजय बिष्ट को कलंक कहें, सच तो यह है की हम सब इस कलंक में भागीदारी हैं। हाथरस की मनीषा वाल्मीकि ना ही सिर्फ एक लड़की थी, वो एक दलित भी थी और इस देश में ना जाने कितनी अल्पसंख्यक लड़कियों ने मनीषा की सच्चाई को जिया है और आगे जिएँगी! जब-जब जिसका राजनीतिक  मतलब होगा, तब-तब वो लोग आवाज़ उठाएंगे! बहुत ही थोड़े लोग मनीषा और उसके परिवार के न्याय के लिए कैमरे जाने चले जाने के बाद भी डटे रहेंगे!  और कोशिश ये भी होनी चाहिए की और कोई लड़की फिर उत्पीड़ित न हो! और उसके लिए सबसे पहले हमें  बदलना होगा। अपने घर में, रिश्तेदारों में , पड़ोस में, और दोस्तों में सोच को और बातचीत के तरीके को बदलना होगा! आप माने न माने, मनीषा की कहानी जितनी निर्भया से जुड़ी है उतनी ही रिहा चक्रवर्ती से भी जुड़ी है।और हर उस लड़की से जुड़ी है जिसे शब्दों से या कर्मों से बे-इज़्ज़त क

दिल की जेब

मेरे बेटे शान के लिए, तेरे दिल की जेब बस यूँ ही, ईमान-ओ-उम्मीद से रहे भरी।   तेरे सुनहरे सपनों की, ख़ुद आसमाँ करे मेज़बानी।   तेरे क़दमों को खींचे आगे, बड़े प्यार से ये ज़मीं।   बरकत ही बने हमेशा, उठें हाथ तेरे जब भी।   बाहर अँधेरा कितना भी गहरा हो, तेरे सीने में जलती रहे रौशनी।   उसकी माफ़ी की बारिशें धो दें तुझे, कभी जो मैली हो जाए तेरी हस्ती।   रखी है ये दुआ उसके क़दमों में, रहम से देखे, देखे वो तुझे जब भी।  

ग़म के डब्बे

अलग-अलग डब्बों में,  ग़मों को ढक्कन लगा के बंद कर दिया है।  और उन डब्बों को दिल के किचन में, करीने से सजा के रख दिया है।   हर डब्बे के ग़म का  ज़ायका ज़रा  मुख़्तलिफ़  है।   कोई ग़म बड़ा तीखा है, महसूस करते ही  दिल सी-सी करने लगता है, लोगों की तीख़ी बातों से बना है ये, आँखों में आंसूं उतर आते हैं, उस डब्बे को तो खोलते ही, बंद करना पड़ता है! एक डब्बे का ढक्कन पूरा  बंद ही नहीं होता, रोज़-रोज़ की  खिच -खिच से बनता है ये वाला ग़म।   इस ग़म की गंध से, दिल तक़रीबन रोज़ ही  भरा रहता है, शायद दिल को उसकी  आदत हो गयी है।  एक और डब्बा है, मीठे दर्द से बना ग़म.  यह सुनहरी यादों से बना है, उन लम्हों से बना है जो शायद कभी लौट के नहीं आएंगे, यह वाला डब्बा  अक्सर खोल लिया करती हूँ, गीली ऑंखें मुस्कुराने लगती हैं, मेरी जड़ें, मेरी हस्ती को बुलाने लगाती हैं, मगर फिर ज़िन्दगी आवाज़ देती है, मुझे वापस आज में बुला लेती है, और मैं वो डब्बा बंद करके  वहीँ करीने से सजा देती हूँ।  

नफरत की रोटी

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ये कविता हर उस उपद्रवी भाई के लिए है जो गुस्से में आकर सड़क पर उतर तो जाता है मगर असल में उसकी किसी से भी कोई दुश्मनी नहीं होती।  उस के घर में भी वही संघर्ष होते हैं जो उन लोगों के यहाँ होते हैं जिन्हे वो धर्म या जात  के नाम पर तबाह करने जाता है।  सच तो है की उस की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी उन्ही लोगों से ज़्यादा मिलती है बनिसबत उनसे जो उसे सड़कों पे उतरने को उकसाते हैं। वो अपने जीवन को दांव पर लगा कर, लोगों को मार कर या उन्हें बेघर कर के जब वापिस अपने घर पहुँचता है तो उसकी खुद की ज़िन्दगी वहीं की वहीँ खड़ी होती है, या फिर और बदतर हो चुकी होती है। अपने घर में माँ, पत्नी, बच्चे डरे हुए होते हैं, उसके नए रूप पर सवाल उठाते है /  हाँ, जिन्होंने उसे उकसाया होता है, उन्हें promotion मिल जाती है! मैं उन सारे जवानों से अपील करती हूँ की वो सोचें, अपने-अपने दिलों में झांके, क्या दूसरों बर्बाद करने के बाद वो खुश हैं, उनके घर वाले पहले से बेहतर हैं? अगर नहीं, तो दोस्त, ये रास्ता ठीक नहीं है, न तुम्हारे लिए, न तुम्हारे घरवालों के लिए।  जहाँ तक दुसरे धर्म वालों को सबक सिखाने की बात है , ये  सिर्फ मरन

गाँधी जी पूछ रहें हैं

गाँधी जी पूछ रहें हैं हमसे, कितनी दूर भागोगे मुझसे? कब तक ढूँढोगे दुश्मन यहाँ-वहाँ, जब वो  छिपा है खुद में? यह हिन्दू, वो मुसलमां, कर लो चाहे जितना, रोटी, नौकरी, इज़्ज़त, शौहरत, पा लोगे क्या आगे-ए -नफरत में? इंसान को कब तक, देखोगे मज़हब की हद तक? अरे, अब बस भी करो, अब सब्र ख़त्म हो रहा है मुझमें! क्या बचा है अब हमारा प्यार, माफ़ी, भाईचारा? सब हो गया है तेरा-मेरा, बस उलझे हैं तुझमें-मुझमें? सोचा था बढ़ जाओगे आगे, दुनिया के सब देशों से आगे, मगर, आज भी  सन अड़तालीस जैसे, गोली दाग रहे हो मुझमें? गाँधी जी पूछ रहें हैं हमसे, कितनी दूर भागोगे मुझसे? कब तक ढूँढोगे दुश्मन यहाँ-वहाँ, जब वो छिपा है खुद में?

नाराज़ समंदर

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एक नाराज़ समंदर मेरे अंदर रहता है, न प्यास बुझाता है, न डूबने ही देता है, न आँसुओं को बहने देता है, न पलकों को सूखने ही देता है...  https://www.pinterest.com/pin/180003316344469612/
मैं हथेलियों से रेत फिसलते देख रोती रही, और चाँद-तारे सारे उम्र भर साथ निभाते रहे...! 

आज की नारी

मै ज़िम्मेदार हूँ, मै ही कभी उस  बलात्कारी को  रोक नहीं पायी, चुप देखती रही, अपने चारों तरफ, आदमी का चिल्लाना, औरत के आदर को कुचलना, औरत हो कर औरत को दबाना, मैं ही अपने बेटे, नहीं सिखा पायी, औरत का सही आदर, घर में, बस में, सड़क पे, दूकान पे, हर शहर, हर तरफ, जाने कितनी बार, औरत को इन्साफ के लिए भटकते देखा, आँखों में आंसूं देखे, मगर देख कर भी अनदेखे कर दिए, उसकी दर्दभरी कहानी, सुन कर भी अनसुनी कर दी, कितनी बार, कितनी ज़िंदगियाँ, सिसक-सिसक के ख़त्म हो गयीं, मैं सोचती ही रही, दिल टूटा कई बार, मगर कुछ किया नहीं, जब खुद पर ज़ुल्म हुआ, तब ही किसी को सज़ा न दे सकी, सर झुका के दूर चली गयी, तो किसी और के हक़ के लिए क्या लड़ती, बस सोचती ही रही... हे, आज की नारी, तुझ को नमन, तू जो सड़कों पर उतरती है, बुलंद आवाज़ से ज़ालिम को ज़ालिम कहती है, नहीं डरती डंडो से तू, नहीं डगमगाती, उनके गंद उगलने से, नहीं हिचकिचाती, चाहे फिर वर्दी बीच में आये, नहीं इंतज़ार करती किसी लीडर का, बस चल पड़ती है, हक़ की लड़ाई में, खुद के और औरों के लिए हिम्मत से लड़ती है

दिल्ली की बिंदी

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साथ समंदर के सफर के बाद भी दिल्ली से ज़्यादा दूर कभी भी नहीं जा पायी! खाना रोज़ ही देसी पकता है, music/movies भी देसी चलती हैं. और दिन रात ट्विटर पर हिंदुस्तान की खबरें follow करती हूँ। मम्मी, भाई और दोस्तों से फ़ोन पर बात भी होती रहती है। मगर कभी-कभी यह सब कम पड़ जाता है।अपनी मिट्टी, अपने शहर की   बहुत याद आती है तो मैं यहीं   दिल्ली वाला माहौल create करने की कोशिश करती हूँ, देसी कपडे पहनके, खुद में वहां के लोगों तो ढूंढती हूँ... दिल्ली वाला सुरमा, दिल्ली का दुप्पट्टा, दिल्ली के झुमके, दिल्ली की बिंदी सब को साथ लेकर ख़ुद में छिपी दिल्लीवाली गुड़िया को पुकारती हूँ, वो मिल भी जाती है मगर बात नहीं बनती...  कोशिश करती हूँ पर वो बात नहीं बनती!  दिल्ली की ख़ुश्बू बस दिल में है महकती, परदेस की हवाएँ रूखी हैं बड़ी, कितने गुलाब खिला लो, पर वो बात ही नहीं बनती!  दिल्ली का सुरमा, ख़्वाब भी वहीँ से मँगवाता है, दिल्ली की चुनरिया, दिल में कोई और शहर बसने ही नहीं देती, दिल्ली की बिंदी ही कहाँ दिमाग़ में कुछ और आने देती है, ये दिल्ली की पैदाईश, दिल्ली भूलने ही नहीं देती!