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अमन-ओ-इंसानियत को रहने दो

युद्ध और हिंसा को बढ़ावा देना या उसका समर्थन करना बहुत ही ग़लत है। बहुत कम ही लोग दोनों तरफ के नुक्सान की बात करते हैं। ज़्यादातर लोग बस एक तरफ ही ध्यान देते हैं और दूसरी तरफ को सिर्फ दुश्मन की नज़र से देखते हैं। मगर सच्चाई कभी भी एक तरफ़ा नहीं होती, और हमें भी दोनों तरफों को शांति से समझना चाहिए तभी सही निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। कोशिश की जानी चाहिए के हम किसी भी हिंसक परिस्थिति में उसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य को हर कोण से समझें। हमारी बातें अमन और शान्ति को बढ़ावा दें न की नफरत को।  जो लोग दूसरी तरफ के लोगों के दर्द को नहीं समझ पाते और नफरत और गुस्से में अंधे हो कर कदम उठाते हैं, वो आख़िरकार खुद भी घाटे में रहते हैं। प्यार और समर्थन के नाम पर मासूमों के कत्लेआम को  सही ठहराना कैसे उचित हो सकता है। धर्म के नाम पर सामूहिक सज़ा तो सबसे बड़ी भूल है क्यूंकि हर इंसान ईश्वर की सृष्टि है और वो सबसे एक सामान प्रेम करता है।  कोई भी सोच यदि क्रोध और नफरत भरी हो तो वो सही हो ही नहीं सकती। क्षमा और करुणा ही जीवन को सही मायनों में सार्थक बनाते हैं। हम दुसरे से नफरत करते करते कब खुद को सज़ा देने लगते हैं

अब बस हुआ!!

बहुत सुसंगत शब्द नहीं है मेरे पास पर कहना चाहती हूँ.... अगर नहीं कहूँगी तो आँसू नहीं थमेंगे ...   इंसानों की यह भद्दी तस्वीर पहले भी देखी है, औरत की आबरू लुटते पहले भी देखी  है, आज फिर दिल क्यूँ  टूट रहा है, जब इंसानियत की अर्थी पहले भी देखी है? आदमी की ताकत और हैसियत  औरत की योनि में गिरती पहले भी देखी  है, औरत भी औरत को सताती,  कुचलती,  और हराती पहले भी देखी है! अभागी लाशों पर राजनीति, और  बलात्कारियों को शह पहले भी देखी  है, आज फिर दिल क्यूँ  टूट रहा है, जब हैवानियत की जय-जयकार पहले भी देखी है!   काश मैं उन बहनों से मिल सकती, उन्हें गले लगा के रो सकती, उन्हें कह सकती के: प्यारी बहन, याद रख तेरी आबरू तेरे जिस्म से बहुत गहरी है, सभ्य तुझे उसी इज़्ज़त से देखेंगे, जैसे पहले भी देखा है, तू फिर आँख मिलाएगी इस समाज से,  जिसकी वहशी आँखों में तूने पहले भी देखा है!  दोस्तों, कब तक सहेंगे हम ये सब, कब तक कहेंगे, यह हालत तो पहले भी देखी है, हाँ, बलात्कार को जंग का हथियार पहले भी देखा है,  मगर हमने अपनी एकता ताकत भी तो पहले भी देखी  है! आओ, मिल जाएं हम सब, फिर लाएं वही एकता, जो हमने पहले भी देखी ह

वसुधैव कुटुम्बकम्

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आजकल इतना ज़्यादा हिन्दू-मुस्लमान हो रहा है की सोचा एक कविता लिखूँ  उन सीखों पर जो बचपन में हमें घर पर, स्कूल में, खेल के वक़्त, सब जगह बार-बार बताई जातीं थी।  प्रेम और भाईचारा सिखा-सिखा कर बड़ा किया और हमारे बड़े छोड़ गए इस नयी दुनिया में, जहाँ नफरत और विभाजन बोल-बाला लगता है। इस नए वातावरण में तो हमें ठीक से जीना भी नहीं आता, अक्सर गिर जाते हैं, बहक जाते हैं, भड़क जाते हैं! फिर याद आता है, यह हम नहीं हैं, हमें कुछ और बनाया जा रहा है!!!  कभी-कभी उन बातों को याद रखना भी मुश्किल हो जाता है, कभी-कभी लगता है वो बचपन का हिंदुस्तान ही हाथ से फिसलता जा रहा है! इसलिए सोचा, आज फिर 'Back to Basics' पे जाया  जाये....  Photo: Approx 18 yrs ago when I was working in Tamil Nadu हाँ, कोई हिन्दू है तो कोई मुसलमान है, पर हम सारे पहले इंसान है।   हाँ, नफरत भी मुमकिन है, मेरे दोस्त, मगर प्यार में ही छिपा भगवान है।   इतिहास को याद कर, उसे तोड़-मरोड़ कर, समझ, के बताते हैं तुझे वो सच्चाई तोड़ कर, तेरा आज क्यों अतीत से हैरान-परेशान है?  ईश्वर को याद भक्ति और प्रेम से करना, उसके नाम को धमकाने में प्रयोग ना कर