दिल्ली, सर चढ़ा है तेरा जादू
मुसलसल हलकी-हलकी हुड़क है, तेरी सम्त जाती मेरी हर सड़क है, मेरी कायनात का मरकज़ है तू आरज़ू शब-ओ-रोज़ है तेरी, तू माशूका नहीं, कोई नशा नहीं, ये तिश्नगी क्या, ये तलब क्यों? मेरे लफ़्ज़ों में तेरी रूह, मेरे ख्यालों में तेरी ख़ुशबू , तेरे असर के बिना मैं क्या हूँ? तेरी धुप की मिठास और थी, उन सर्द रातों की बात और थी, यहाँ हवाओँ में कहाँ वो जुस्तजू! खुला आसमाँ है मेरा क़ैदख़ाना, मेरी आरज़ू सरज़मीं से जुड़ जाना, मैं बेबस आज़ादी की क़ैद में हूँ, यह ज़मीं ज़रखेज़ सही, मगर है तो गैर मिटटी ही, मैं इसमें अपनी हस्ती कैसे ढूँढू? एक ख़्वाहिश भिनभिनाती रहती है, चल वापस चल, दोहराती रहती है, दिल्ली, यूँ सर चढ़ा है तेरा जादू