संदेश

सितंबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बेबसी

ये कतई ज़रूरी नहीं के, मेरी नज़र जो देख रही है, तुझे दिखाई दे, मगर अब भी गर राबता है मुझसे तो, मेरी आखों में जो डर है, वो तो तुझे दिखाई दे. मज़हब में खुदा बड़ा है या इमारत? एहम वो है जो न आँख से दिखाई दे, खुदा में अमल बड़ा है या इबादत? मेरे अज़ीज़, जो ज़रूरी है चीज़, काश, वो तुझे दिखाई दे। वादी में गुलों के पीछे हैं हज़ारों कैदखाने, कैसे ये नाइंसाफी न तुझे दिखाई दे? क्या माँओं की गुज़ारिश न तुझे सुनाई दे, क्यों बच्चों की बेबसी न तुझे दिखाई दे?  गुफ्तुगू कहीं खो गयी, दलीलें ही रह गयी हैं, बातचीत का खाली खाता, क्या किसी को दिखाई दे? क्यों हिन्दुस्तानियत की आवाज़ बैठ रही है, क्या वजह किसी को न दिखाई दे?   तड़पती हूँ मादर-ए -वतन के लिए, वापसी की कोई राह न दिखाई दे, एक अदनी सी कलम और चार बातें, दिल में बस बेबस मोहब्बत-ए -सरज़मीं दिखाई दे! 

राज़-ए -दिल

मेरे राज़-ए -दिल सेहरा-ए -ज़िन्दगी में महफूज़ रहे, मैं रेत पे लिखती रही, हवाएं मिटाती रहीं।  कोई समझे भी क्यों मेरे दिल की बात, मैं ही तो हमेशा हसरतें-ए -दिल सबसे छिपाती रही। हर बात का एक क़द होता है, बौनी बात छिपाती रही, ऊँची बताती रही।    के कह भी दूँ और समझ भी न आये, कई बातें यूँ शायरी में सजाती रही।   एक आध राज़ इतने पेचीदा रहे, के खुद से भी कहने से हिचकिचाती रही।