तुम्हारे जाने के धमाके ने, मेरे घरोंदे में, कई छोटे-बड़े सुराख़ बना दिए थे, दूसरों के प्यार के सीमेंट से, कुछ भर गए हैं, मगर, कुछ रह गए हैं, न वक़्त, न साथ किसी का, भर पता है उन सुराखों को, आज भी तुम्हारी यादों की, नसीम बहती है वहाँ से, तुम्हारी बसीरत की रौशनी, पहुँचती है मुझ तक वहीँ से, उन्ही सुराखों से, तुम हाथ बढ़ा के, छू लेते हो मेरे कंधे को, हर तूफ़ान के बीच में, भर देते हो मुझे तसल्ली से, फिर याद आतीं हैं, तुम्हारी मुस्कुराती आँखें, तुम्हारी गज़ब बातें, ले जाती हैं मुझे, उन सुराखों के ज़रिये, इन दीवारों के बाहर, खुली हवाओं में, मेरी सोच को पतंग बना देती हैं, मेरे नज़रिये को कुछ ऊँचा कर देती हैं, लोगों में फ़र्क़ तो दिखते हैं, मगर इन्द्रधनुष की तरह, तुम एक बार फिर, इंसानियत का सबक़ याद दिला देते हो, मेरे मज़हब को फिर खुदा से मिला देते हो, काश यह सुराख़ यूँ ही बने रहें, मुझे तुमसे मिलाते रहें, तुम ज़िंदा हो, पापा ये याद दिलाते रहें!