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ख़ुशी

आज यूँ ही याद आई, वो दोपहर गर्मी की, स्कूल से थक कर, पसीने-पसीने घर लौटना, पँखे की हलकी-हलकी हवा में, ढंडा -ढंडा पानी पीना, आह, क्या ख़ुशी मिलती थी! और गेस करना मम्मी ने  अरहर की दाल बनाई है, या पापा ने तेहरी,  फिर गरम-गरम खाने में, ताज़ा-ताज़ा दही मिला कर, प्याज़ के साथ खाना, आह, ख़ुशी मिलती थी! पेट भर खाना खा के, पंखे के नीचे, आराम से लेट के, भाई से मांग के , फैंटम, चाचा चौधरी, चम्पक या फिर नंदन पड़ना, आह, क्या ख़ुशी मिलती थी! आज उम्र की इस पड़ाव में, दुनिया भर में घूम कर, एयर कंडीशन में रह कर, नाम और पैसा कमा कर भी, अपनी मर्ज़ी चला कर भी, वो ख़ुशी कहाँ जो, जो मम्मी-पापा के घर मिलती थी!

तेरा करम

ऐ खुदा, टूट-टूट कर भी खड़ा हूँ मैं, यह तेरा करम नहीं तो और क्या है?   इतने वार, इतने ज़ख्म, और मुस्कुरा हूँ मैं, यह तेरा करम नहीं तो और क्या है?   थक के चूर हूँ, फिर भी चल रहा हूँ मैं, यह तेरा करम नहीं तो और क्या है?   बेहाल हूँ  मगर आज भी दूसरों की दवा हूँ मैं, यह तेरा करम नहीं तो और क्या है?   दबा रहें है मेरी आवाज़ लेकिन आज़ाद सदा हूँ मैं, यह तेरा करम नहीं तो और क्या है?

ये मेरा खुदा

ये मेरा खुदा, सड़कों पे मिल जाता है, तो कभी बादलों के पीछे से कहीं, देखके मुस्कुराता है!   हर किसी से मुहोब्बत करने को  दिल में तूफ़ान मचाता है, ग़रीब, मजबूर, मज़लूमों, के चेहरों में नज़र आता है!   इसे कहीं दिल से पुकार लो, वहीँ मिल जाता है, कितने भी लोग खड़े हों आगे, सीधा मेरे पास आता है!   न लाइन का लफड़ा, न चंदे का चक्कर चलता है, मैं ही सबसे ख़ास हूँ उसकी, ऐसे फील कराता है!   कुछ भी खाया-पिया हो, मस्त गले लगाता है, सारी गलतियाँ माफ़ करके, फिर से नया बनाता है!   ये मेरा खुदा, अपना वजूद खुद ही संभालता है. इंसान लड़ मरें इसके लिए, यह तो बिलकुल नहीं चाहता है!    ये मेरा खुदा, सबको पास बुलाता है, ये मेरा खुदा है तेरा खुदा भी, ये समझाना चाहता है। 

सारा आसमाँ हूँ!

आजकल हर तरफ नफरत का बोलबाला है।  कहीं देख लें, हिंसा का कोई न कोई चेहरा नज़र आ ही जाएगा।  हैवानियत अलग-अलग लिबास में नाच रही है।  कहीं मज़हब, कहीं रंग भेद, कहीं पैसा तो कहीं सियासत! और लोग गुटों में बँट गए हैं।  दुसरे का दर्द महसूस कम होने लगा है, अपनों की ग़लतियाँ कम नज़र आने लगीं हैं।  और हाँ, अपने लोगों की परिभाषा भी जैसे बदल रही है।  पहले दोस्त, पड़ोसी, साथ में  काम  करने वाले, रिश्तेदार कोई भी अपनों की गिनती में आता था।  आज कल अक्सर मज़हब और राजनितिक राय न मिले तो आप अपने नहीं रहते। और ये हाल सिर्फ इंडिया में ही नहीं बल्कि और देशों में भी दिख रहा है... पूरा विश्व जैसे अलग-अलग गुटों में बंटता जा रहा है... लोग मिलते हैं तो फेसबुक पर, वास्तव में मिलते हैं तो आँखें नहीं मिला पाते और जो आँखें मिल जाएं तो दिल नहीं मिलते। मगर सब ऐसे नहीं हैं। जिनकी आँख उससे लड़ चुकी है, वो फ़र्क़ नहीं कर पाते :-) वो तो उनके कान में अपनी बात फूँक के, अपना जादू चला चुका!   मैं बौद्ध, सिख, इसाई  हिन्दू और मुसलमाँ हूँ, दिल में बस जाता हूँ, वैसे सारा आसमाँ हूँ!  है मोहब्बत मेरी जागीर, फ़िक़

इंतज़ार-ऐ-असर-ऐ-दुआ में हूँ

मायूसी और फिर लड़ने की जुस्तजू, दर्द और उम्मीद के बीच सफर में हूँ, दायरा सिमटा है बस, बंदी नहीं हूँ।   थक जाता हूँ तो रो लेता हूँ, उसकी मोहब्बत याद कर मुस्कुराता हूँ, दरारें पड़ीं हैं, अभी टूटा नहीं हूँ।   सवाल, सलाह, नसीहत, और इल्ज़ाम, सुन रहा हूँ हर बात, हर कलाम, ख़ामोश हूँ, पर लाजवाब नहीं हूँ।   डर के अँधेरे में है चराग़-ऐ -ईमान, सर झुका है, हाथ देखते हैं आसमान, बस इंतज़ार-ऐ-असर-ऐ-दुआ में हूँ।  

मेरी कलम

  पहले लिखा करती थी, आजकल नहीं लिखती, पड़ी रहती है थकी-थकी सी, सेहमी सी, यह कलम, आजकल नहीं लिखती।  बहोत बोझ है कन्धों पे इन दिनों,, इतने मसले, इतने मुद्दे, समझ ही नहीं पा रही है, किसे बाद में और किसे पहले लिखे? सदमे में है कुछ वक़्त से, बड़ी-बड़ी कलमों को बिकते हुए देख कर, और वो जो बिकी नहीं, उनमें से कुछ को टुकड़े-टुकड़े देख कर!, दुःखी है उन बड़ी कलमों पर, जो अंदर से खोकली हो गयी हैं, जिनके ज़मीर बीमार हो गए हैं, कई को कतई दोगली हो गयी हैं।  आज कुछ कदम चली है, पर फिर बैठ गयी है, अपनी लाचारी पे शर्मिंदा है, जहाँ तेज़तर्रार कलमें बेबस हैं, लफ़्ज़ों का पेशा आजकल ज़रा गन्दा है! पहले लिखा करती थी, आजकल नहीं लिखती, पड़ी रहती है थकी-थकी सी, सेहमी सी, यह कलम आजकल नहीं लिखती।   
    उसकी रूह से लिखी गयी थी किताब, इसमें कोई शक़ नहीं, मगर उसे किसी क़ायदे-ओ-क़िताब में बाँधने का, किसी को हक़ नहीं!    

दिल्ली, सर चढ़ा है तेरा जादू

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मुसलसल हलकी-हलकी हुड़क है, तेरी सम्त जाती मेरी हर सड़क है, मेरी कायनात का मरकज़ है तू आरज़ू शब-ओ-रोज़ है तेरी, तू माशूका नहीं, कोई नशा नहीं, ये तिश्नगी क्या, ये तलब क्यों? मेरे लफ़्ज़ों में तेरी रूह, मेरे ख्यालों में तेरी ख़ुशबू , तेरे असर के बिना मैं क्या हूँ? तेरी धुप की मिठास और थी, उन सर्द रातों की बात और थी, यहाँ हवाओँ में कहाँ वो जुस्तजू! खुला आसमाँ है मेरा क़ैदख़ाना, मेरी आरज़ू सरज़मीं से जुड़ जाना, मैं बेबस आज़ादी की क़ैद में हूँ, यह ज़मीं ज़रखेज़ सही, मगर है तो गैर मिटटी ही, मैं इसमें अपनी हस्ती कैसे ढूँढू? एक ख़्वाहिश भिनभिनाती रहती है, चल वापस चल, दोहराती रहती है, दिल्ली, यूँ सर चढ़ा है तेरा जादू 

दूर चले गए

मेरा नाम जपते-जपते, वो मुझसे दूर चले गए, मुझे अपनी पसंद में ढालते -ढालते  मेरे वजूद से दूर चले गए... मुझे बेचते-बेचते, वो कहाँ से कहाँ चले गए, मैं यहाँ इंतज़ार में हूँ उनके, जो घर से मेरे दूर चले गए... मेरी मुहोब्बत बांधते-बांधते, मज़हबी नामों-ओ-इमारतों में, वो आज़ादी-ए -मुआफ़ी से बहोत होते दूर चले गए... मैं आवाज़ देते-देते, थक गया हूँ उन्हें, मेरे नाम से जो बुलाते हैं दूसरों को, वो ख़ुद क्यों मुझसे दूर चले गए? शायद मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते, मेरी पहचान ही भूल गए, मैं तो सबका हूँ, सब मेरे, वो मेरी सच्चाई से दूर चले गए....!

सीरिया!

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   इंसानियत की यह हालत नहीं सही जाती, अलेप्पो से आती चीखें नहीं सुनी जाती, बच्चों की बिलखती तस्वीरें देखी नहीं जाती, मुझ से होश की ज़िन्दगी जी नहीं जाती,    मज़हबी दायरों में दीन मिलता नहीं , सियासतदानों से रहम मिलता नहीं , दर-दर ढूँढ़ते हैं, हरम मिलता नहीं , इन बेबसों को अक्सर करम मिलता नहीं   लिखा कई बार पहले भी इस बारे, सब के सब लफ्ज़ हैं हारे, बड़ी हैं लहरें, दूर हैं किनारे, लाडली, आज तेरे सारे  हमदर्द हैं बेचारे!   http://www.khaama.com/syria-a-dying-nation-3899  इंसानियत का दिल कब तक देह्लेगा? ये जहाँ फेसबुक से कब तक बहलेगा? यह ज़ुल्म कब तक चलेगा? सीरिया, तेरा परचम कब तक जलेगा? मुझे सेल्फी/फेसबुक में रहने दो, मसरूफियत का बहाना बनाने दो, अपनी खुदगर्ज़ी में रमने दो, मुझे बस ऑंखें मीचे रहने दो