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कुछ तो बता

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माँ की आँखों का दुलारा  कहाँ खो गया? कुछ तो बता....  क्यों दी ये सज़ा? क्या थी उनकी खता? कुछ तो बता…  नन्हों का खून बहने दिया,  क्यों तूने होने दिया? कुछ तो बता.… माँओं का आँचल सूना किया, कैसे तूने बर्दाश्त किया? कुछ तो बता…  अँधेरा जहाँ हो गया  उन घरों का क्या? कुछ तो बता…  ज़ालिमों ने जब यह गुनाह किया  क्यों  नाम  तेरा ही लिया? कुछ तो बता…  क्यों तू बस देखता रहा, कैसे तू चुपचाप रहा? कुछ तो बता…  क्या तेरा ध्यान नहीं था? या फिर तू मजबूर था? कुछ तो बता…  कोई हद अब नहीं है क्या, है  कैसा ये हैवानियत का नशा? कुछ तो बता.…  डर, माफ़ी, या गुस्सा, किसे दें दिल में जगह? कुछ तो बता.…  मंज़र नन्ही कब्रों का, मंज़ूर करें किस तरह?  कुछ तो बता.…  http://www.durangoherald.com/article/20141219/NEWS03/141219498/Pakistan:-77-militants-killed-after-school-massacre- मेरे खुदा, कुछ तो बता… कुछ तो बता 

मुस्कुराने दो

नहीं कहनी तकरीरें मुझको, बस संग सबके मुस्कुराने दो हिन्दू को, मुसलमां को, ईसाई-ओ-यहूदी को, मेरे दिल के सुर्ख़ कोने में सुकूं से रहने दो नहीं जीतनी कोई बेहस मुझे, बस इन्सां को गले से लगाने दो मैं भी वाकिफ़ हूँ फ़र्क़ों से, मगर मुझे मुशबिहात में रम जाने दो मेरे पास भी बर्दाश्त नहीं हर एक के लिए, जिस-जिस को उसने बनाया, उनसे से तो दिल लगाने दो 

नज़रिया

इधर आजकल मन बहोत उदास सा है, मगर ऐसा नहीं है की खुशियाँ  नहीं हैं। कभी बीती यादेँ सताती हैं, तो कभी कुछ और :-) और दिल इतना निक्कमा है की बरकतेँ गिनना भूल कर हर छोटी बात पे हाय-तौबा मचाने लगता है.… ख़ुशी और ग़म, मोहब्बत और शिकायत, साथ साथ ही पलते हैं, खट्टे-मीठे जज़्बात, अक्सर साथ ही चलते हैं काश एहसासों को हम एक दुसरे से जुदा कर पाते , मगर ये एहसासात, अक्सर साथ ही उभरते हैं  भीगी आँखें जब मुस्कुराती हैं, तो गज़ब लगती हैं, उनकी नमीं में कई इज़हारात  अक्सर साथ ही झलकते हैं  न कोई वक़्त सिर्फ खुशनुमा होता है, न कोई लम्हा कतई ग़मज़दा, ज़िन्दगी में मुख्तलिफ हालात, अक्सर साथ ही पनपते हैं  सोचने लगो तो जैसे  ख़यालों की झड़ी सी लग जाती है, ज़ेहन से तरह-तरह के ख़यालात  अक्सर साथ ही गुज़रते हैं  इसलिए ज़रूरी है के  नज़रिया नज़ारे से बड़ा हो क्यूंकि, आबपाशी-ओ-सैलाब के बादल, हज़रात, अक्सर साथ ही बरसते हैं

सफ़र

कल फिर तुम मिले, बड़ा अच्छा लगता है तुमसे मिलके, मेरी दुनिया जैसे पूरी हो जाती है, मगर फिर सुबह हो जाती है, या आँख खुल जाती है, फिर तुम नहीं होते, दिल्ली भी नहीं होती, बस हक़ीक़त होती है, 'आज' होता है, सपनों में कल में लौटती हूँ, और नींद टूटने पर आज में, यह सफ़र थका देता है, पापा

मिशन मोहब्बत!

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विदेशियों की बगल में हवाई जहाज़ की सीट पे आलती-पालती मार के बादलों से उलझते हुए हिंदी के अक्षरों में अपनी ज़िंदगी और उसके मकसद को सोचने का अलग ही मज़ा है... अक्सर सोचती हूँ, क्यों जाती हूँ अपनों को छोड़ कर बार बार? घर पर हर तरह का आराम है फिर क्यों निकल जाती हूँ गाँव-गाँव और शहर-शहर की ख़ाक छानने? वो तो भला हो घर वालों का जो जाने देते हैं और लगातार हर तरह से समर्थन करते हैं। नौकरी करते अब करीबन १५ साल हो गए, न तो कोई भारी बैंक अकाउंट बना पाई और न ही कोई खास संपत्ति। रेड क्रॉस की नौकरी वैसे भी पैसे के जुटाने के लिए नहीं करी, हाँ रोज़मर्रा की ज़रूरतें ज़रूर पूरी हो जातीं हैं।  वो तो भला हो दफ्तर वालों का जो रिटायरमेंट के लिए पैसे जमा करते हैं हर महीने जो शायद बेटे की आगे के पढ़ाई में काम आ जाएँ। भारी भरकम बैंक अकाउंट हो या न हो, दिल को इतनी तस्सली ज़रूर है की ज़िंदगी के आखिरी दिन तक गरम-गरम दाल-चावल मिल ही जाएंगे, और न भी मिले तो ठन्डे से भी काम चल ही जाएगा :-) मगर इस रास्ते पे दुआओं, प्यार और दोस्तों की कमी नहीं है।  अगर धन संपत्ति इन सब से आँकी जाती तो शायद में दुनिया सबसे अमीर लोगो

और कोई बात नहीं...

हाँ, जानती हूँ चलते रहना ज़रूरी है, यह ज़िन्दगी सीधे-सपाट रास्ते ढूंढ नहीं पाती, बस और कोई बात नहीं … बाक़ियों के साथ मिलके चलना चाहती हूँ तो हूँ, मेरी सोच अक्सर मुझसे बहोत दूर है निकल जाती, बस और कोई बात नहीं … दुनिया-भर में घूमती-फ़िरती हूँ  मगर, कभी-कभी खुद से खुद का फ़ासला तय कर नहीं पाती, बस और कोई बात नहीं … सब कहते हैं बहोत बोलती हूँ मगर, दिल की गहराई को आवाज़ नहीं दे पाती, बस और कोई बात नहीं … यूँ तो बढ़ रही तादाद दुनिया में हर दिन, आजकल यह पहले जैसे बन्दे पैदा कर नहीं पाती, बस और कोई बात नहीं … जंग पहले भी हुआ करती थी मगर, अब यह नन्हे-मुन्नों को भी है ज़िबा कर जाती, बस और कोई बात नहीं … सब के लब पे अमन तो है मगर, अक्सर खुदर्ज़ी है बाज़ी मार जाती, बस और कोई बात नहीं … दिल चाहता है तोड़ दूँ नफरत की दिवारों को, मेरी कोशिशें एक ईंट भी गिरा नहीं पाती, बस और कोई बात नहीं … वो इस दुनिया को जन्नत बना तो सकता है मगर, फिर जन्नत की कोई ज़रुरत रह नहीं जाती, बस और कोई बात नहीं …

नया चश्मा

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पिछले दिनों हिंदुस्तान में काफी राजनितिक माहौल  बना रहा। हर दूसरा शख्स राजनीतिज्ञों जैसी भाषा बोल रहा था। एक दुसरे की पार्टी पर हम सबने अपनी-अपनी राय रखी। तरह-तरह की तोहमतें लगाईं। इसी तरह धार्मिक इलज़ाम भी लगते हैं और कई बार तो यह छींटाकशी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी की जाती है… और फिर यही बातें रास्ता देती हैं जातीय, धार्मिक या राजनितिक उत्पात को. अगर हम अपनी सोच को, भाषा को, अपने  बोलों को थोड़ी अच्छी और सच्ची वाली लगाम दें तो हम काफी हद तक देश और दुनिया का माहौल बेहतर कर सकते हैं। सच तो यह है अच्छाइयाँ सब में हैं, बस नज़र-नज़र की बात है, जिसका जैसा चश्मा, वो बस वैसा देखता है… http://funfamilycrafts.com/pipe-cleaner-love-goggles/   क्यूँ उठा लेते हैं हम पत्थर  जब फूलों की कमी नहीं? क्यों बढ़ा-चढ़ा कर लगाते हैं तोहमत, जब उन बातों में सच्चाई की ज़मीं नहीं? किस हक़ से बात करते हैं सज़ा देने की, जब आँखों में प्यार की नमी नहीं? हम ही अच्छे और वो बस नालायक, ये बात कुछ जमी नहीं! ढूंढो तो अच्छाई हर एक में है, अच्छे सिर्फ हम ही नहीं! बढ़ा लो हाथ, क

चली आऊँ

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जब तू बुलाए, चाहे जहाँ बुलाए, मैं चली आऊँ, तेरे क़दमों के निशां मिल जहाँ जाएँ, मैं चली आऊँ न मुश्किल रोके, न दूरी डराए तेरे दर तक चली आऊँ, कितना भी नामुमकिन लगे चाहे, तेरे घर तक चली आऊँ तेरी सूरत कि एक झलक मिल जाए, ये हसरत लिए चली आऊँ, तेरे क़दमों में जगह मिल जाए, इस चाहत में चली आऊँ तेरी प्रीत कि रीत जीवन बन जाए, तुझको तरसती चली आऊँ, मेरा हर पल तेरा ध्यान बन जाए, थिरकती तेरी धुन पे चली आऊँ मेरा 'मैं' तुझ में खो जाए, बन बेगानी चली आऊँ, मेरी हर ख्वाहिश बस तू हो जाए, हो के दीवानी चली आऊँ Photo courtesy Google जिस सिम्त से तेरी आवाज़ आए, मैं दौड़ी चली आऊँ , इससे पहले के यह साँस थम जाए, मैं भागी चली आऊँ यहाँ और वहाँ भी तू नज़र आए, कहाँ कहाँ चली आऊँ ? कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ तू न नज़र आये, तेरा हुक्म हो जहाँ, वहाँ चली आऊँ माफ़िओं को जहाँ ज़िन्दगी मिल जाए, सर झुका के चली आऊँ, जहाँ मोहबतों कि उम्र बढ़ जाए, सब कुछ भुला के चली आऊँ तेरे दर तक चली आऊँ, तेरे घर तक चली आऊँ
अक्सर अपने आप को भीड़ से जुदा देखा, चहरों को नराज़ तो कभी हैरतज़दा देखा, वो समझ न सके मेरे क़दमों का सबब, मैंने इस फ़र्क़-ए-सोच में मंसूबा-ए-खुदा देखा 

मेरा गुड्डू !

वो खो गया था, फिर  कुछ पलों के लिए मिला था, लगता है फिर खो गया है मैं जानती हूँ मिल जाएगा फिर मुझे, आगोश में लेलेगा फिर मुझे, कोई सफाई नहीं देगा, मोहब्बत से अपनी उलझा लेगा फिर मुझे, पता नहीं कहाँ जाता है? सैर पे निकलता है या खुद भी भटक जाता है? चाहे कितने भी दिनों के लिए जाता है, एक दिन लौट के ज़रूर आता है, बस  खुश हो, शादाब हो, हर अंधियारे एहसास से आज़ाद हो, रस्ते पे होना कोई हादसा हो, उसके कदम गुज़र जाने के बाद हो उसके होने का फरमान आ गया है  मेरा जहाँ फिर महक गया है, आहट सी है, शायद घर का रास्ता मिल गया है, खो गया था, लौट आया है 

मम्मी के हाथ

कुछ दिनों पहले मुझे दिल्ली जाने का मौका मिला, मैं मम्मी से करीब दो साल के बाद मिल रही थी. उनके हाथ कुछ अलग से लगे. उनके हाथ मुझे वापिस आने के बाद भी याद आते रहे, यह वो हाथ नहीं थे जो मैं बचपन से देखती आई थी. यह हाथ जैसे कुछ कह रहे थे, मुझे एहसास दिलाने की कोशिश कर रहे थे की वक़्त बड़ी तेज़ रफ़्तार से गुज़र रहा है और  हमारी मसरूफ ज़िन्दगियों के पास वक़्त ही नहीं है. दर्द बहोत है और वक़्त थोड़ा है  मगर आस अभी बाकी और उम्मीद अभी ज़िंदा है… तुम्हारे हाथोँ की उभरती झुर्रियों में छिपी हैं वो सारी यादें, जब गोल-मटोल गोरे-गोरे हाथ तुम्हारे हमें गोद  में उठा लेते थे रोते थे कभी तो थपथपाते थे, जो बीमार हुए तो सर सहलाते थे, रातों को भी हमारे आराम की टोह लेते थे, ग़लती पे रास्ता दिखाते थे, अब हम दूर हो गए हैं तुमसे, अब हम तुम्हारे हाथ ही नहीं आते, मगर जानती हूँ आज भी उठते हैं हमारे लिए हर रोज़ तुम्हारे हाथ दुआओं में, माँग लेना यह भी अपनी दुआओं में, के हम भी ले सकें अपने हाथों में हाथ तुम्हारे, तुम्हारी तरह हम भी कर सकें अपने फ़र्ज़ पूरे, तुम्हारे अकेलेपन के लम्हों को चुरा सकें तु

जानती नहीं...

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सोचने बैठो तो ज़हन सवालों से भर जाता है। बात पे बात निकलती है, कभी खुद से तो कभी खुदा से उलझ जाती हूँ… शायद इसी को बड़ा होना कहते हैं। ये रचना लिखती रहती तो लिखती ही रहती क्यूंकि एक बात तो जानती हूँ के बहोत कुछ है जो मैं नहीं जानती :-)  तेरा नाम, पता, शक्ल कुछ भी तो ठीक से नहीं जानती , मगर इतने क़रीब है तू दिल के, कैसे कह दूँ के तुझे नहीं जानती  कहते हैं कई रास्ते तुझ तक पहुँचते हैं, कैसे चलूँ इन पे बिना घायल हुए नहीं जानती  यह ज़िन्दगी तेरी नियामत है, तेरी ही अमानत है, मानती हूँ, कैसे गुज़ार दूँ ज़िन्दगी के दिन-रात तेरे क़दमों पे नहीं जानती  मेरी हर मुश्किल कि जड़ मैं खुद हूँ, कोई शक़ नहीं, कैसे निजात पाऊँ इस 'मैं' से नहीं जानती हर एक में है तेरा अक्स, समझती हूँ, कैसे हर बार हर एक में देखूँ तुझे नहीं जानती बात करने से बात बढ़ती है, चुप रहने से तोहमत लगती है, आज भी लोगों को लुभाने के तरीके नहीं जानती जब एक से मोहब्बत दूसरे के इन्साफ में आड़े आये, तो निभाऊँ इंसानियत कैसे नहीं जानती  मोहब्बत से दिल भर

Allah Tero Naam Ishwar Tero Naam