अमन-ओ-इंसानियत को रहने दो
युद्ध और हिंसा को बढ़ावा देना या उसका समर्थन करना बहुत ही ग़लत है। बहुत कम ही लोग दोनों तरफ के नुक्सान की बात करते हैं। ज़्यादातर लोग बस एक तरफ ही ध्यान देते हैं और दूसरी तरफ को सिर्फ दुश्मन की नज़र से देखते हैं। मगर सच्चाई कभी भी एक तरफ़ा नहीं होती, और हमें भी दोनों तरफों को शांति से समझना चाहिए तभी सही निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। कोशिश की जानी चाहिए के हम किसी भी हिंसक परिस्थिति में उसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य को हर कोण से समझें। हमारी बातें अमन और शान्ति को बढ़ावा दें न की नफरत को। जो लोग दूसरी तरफ के लोगों के दर्द को नहीं समझ पाते और नफरत और गुस्से में अंधे हो कर कदम उठाते हैं, वो आख़िरकार खुद भी घाटे में रहते हैं। प्यार और समर्थन के नाम पर मासूमों के कत्लेआम को सही ठहराना कैसे उचित हो सकता है। धर्म के नाम पर सामूहिक सज़ा तो सबसे बड़ी भूल है क्यूंकि हर इंसान ईश्वर की सृष्टि है और वो सबसे एक सामान प्रेम करता है।
कोई भी सोच यदि क्रोध और नफरत भरी हो तो वो सही हो ही नहीं सकती। क्षमा और करुणा ही जीवन को सही मायनों में सार्थक बनाते हैं। हम दुसरे से नफरत करते करते कब खुद को सज़ा देने लगते हैं पता ही नहीं चलता...
मेरा नहीं है, उनका खून है,
बहता है तो बहने दो।
इतना नाराज़ हूँ के बस नफरत ही काफी है,
ये प्यार मोहब्बत को रहने दो।
खो दी हज़ारों जानें हमने भी,
उनके लोग मरते हैं तो मरने दो,
जब उन्हें कोई रोक न पाया,
तो हमें भी जी भर के ज़ुल्म करने दो!
लूट लिया घर, छीन लिया सुकूँ,
उनकी भी ज़िंदगियाँ तबाह होने दो,
मेरा बच्चा तड़पता रहा कई घंटे,
उनकी भी औलादें ज़िबह होने दो!
सबका खून जब दरिया में मिल एक हो जाएगा,
तब तक नफरत को नसों में बहने दो!
तब शायद इस नफरत से नफरत होगी,
अभी अमन-ओ-इंसानियत रहने दो।
इससे पहले के बहुत देर हो जाए, ईश्वर करे के यह बदले कि भावना कमज़ोर हो जाये!
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