बदलो ये हवा!

जब शब्दों की जगह आँसू  उभर आते हों तो कोई कविता या लेख लिखना मुश्किल हो जाता है।  कहने को बहुत कुछ है मगर सही शब्दों का चुनाव ही नहीं हो पा रहा है।  बलात्कार या फिर कहूं की बलात्कारों की न ख़त्म होने वाली दर्दनाक दास्तान बन गया है हिंदुस्तान! आप जितना चाहें योगी अजय बिष्ट को कलंक कहें, सच तो यह है की हम सब इस कलंक में भागीदारी हैं। हाथरस की मनीषा वाल्मीकि ना ही सिर्फ एक लड़की थी, वो एक दलित भी थी और इस देश में ना जाने कितनी अल्पसंख्यक लड़कियों ने मनीषा की सच्चाई को जिया है और आगे जिएँगी! जब-जब जिसका राजनीतिक  मतलब होगा, तब-तब वो लोग आवाज़ उठाएंगे! बहुत ही थोड़े लोग मनीषा और उसके परिवार के न्याय के लिए कैमरे जाने चले जाने के बाद भी डटे रहेंगे! 

और कोशिश ये भी होनी चाहिए की और कोई लड़की फिर उत्पीड़ित न हो! और उसके लिए सबसे पहले हमें  बदलना होगा। अपने घर में, रिश्तेदारों में , पड़ोस में, और दोस्तों में सोच को और बातचीत के तरीके को बदलना होगा! आप माने न माने, मनीषा की कहानी जितनी निर्भया से जुड़ी है उतनी ही रिहा चक्रवर्ती से भी जुड़ी है।और हर उस लड़की से जुड़ी है जिसे शब्दों से या कर्मों से बे-इज़्ज़त किया जाता है। जब आप किसी को किसी महिला का अनादर करते देखें, तो बीच में इस तरह दखल दें के आप भी सुरक्षित रहें और वो महिला भी।मगर अपने सामने किसी भी महिला का अपमान न होने दें क्यूंकि इन्हीं शब्दों से बलात्कारियों को हिम्मत मिलती है।सच तो ये भी है की मानसिक बलात्कार शारीरिक बलात्कार जितना दर्दनाक हो सकता है! और हम सब जानते हैं की इसमें खाली आदमियों को दोष देना भी गलत है, महिलायें भी अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकतीं!  कई बार महिलायें भी दूसरी महिला के उत्पीड़न में भागीदार होती हैं।मगर ये सब यूँ ही नहीं चल सकता! हमें अपने आसपास की हवा बदलनी होगी, लोगों की सोच बदलनी होगी! साइड में खड़े रह कर तमाशा देखना बंद करना होगा! 








बदलो ये हवा, यार, बदलो!
करो पलट वार, बदलो! 
बह रही जो औरत के ख़िलाफ़,
उस सोच की धार बदलो!

अपनी आवाज़ की ताकत समझो,
जनता जनार्दन ही है सब कुछ, समझो!
मत सोचो, 'मैं हूँ लाचार', बदलो!

अकेले नहीं तो मिलके सोचो,
कैसे तोड़ोगे ज़ालिम को सोचो,
अपनी रणनीति और प्रहार बदलो!

दूर खड़े तमाशा तुम न देखो,
कैसे रोकोगे ज़ुल्म, ये देखो,
कमज़ोर हो तुम, ये विचार बदलो!

एकता ही है जवाब, जान लो,
डरता है तुमसे साब, जान लो,
जो ना करे तुम्हारी सरपरस्ती, वो सरकार बदलो!

अब नहीं झुकोगे, ठान लो,
एक-दूसरे के लिए उठोगे, ठान लो,
रोज़-रोज़ की तान-ए-तकरार बदलो! 

बदलो ये हवा, यार, बदलो!
करो पलट वार, बदलो! 
बह रही जो औरत के ख़िलाफ़,
उस सोच की धार बदलो!

Some information on Bystander Intervention:  
https://www.thequint.com/voices/women/bystander-intervention-in-sexual-harassment 
Photos from Google 

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-10-2020) को     "एहसास के गुँचे"  (चर्चा अंक - 3844)    पर भी होगी। 
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
--

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अब बस हुआ!!

राज़-ए -दिल

वसुधैव कुटुम्बकम्