ऐ दोस्त!

तू मेरी आँख में नहीं देखता,
मेरे दिल में नहीं झांकता,
मेरे कपड़ों में मेरा मज़हब ढूंढ़ता है,
क्या हिन्दुस्तानियत की ख़ुश्बू नहीं पहचानता??

तू कौन है, कौन है तू,
के मुस्लिम को हिन्दू का भाई नहीं मानता?
कौन सा बीज और कहाँ की जड़ें हैं,
के बापू-बिस्मिल की बातें नहीं मानता?

थक रहा है झूठ बोलते-बोलते,
सच्चाई से फिर भी हर पल है भागता,
बस एक बार कर हिम्मत, ऐ दोस्त,
इंसानियत-ओ-मोहब्बत से कर राब्ता!

तेरी ये नफरत सारा देश जला रही है,
तुझे मासूम बच्चों का वास्ता,
राम को मंदिर में ही नहीं, मज़्जिद में भी देख,
लौट आ, बड़े प्यार से तुझे खुदा है पुकारता!

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-12-2019) को    "अब नहीं चलेंगी कुटिल चाल"  (चर्चा अंक-3559)   पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
बहुत अच्छी, सचमुच बहुत ही अच्छी कविता, हर तरह हर लिहाज़ से ।

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