यादों की सलाखें
हाँ, शायद यह कविता एक बेवकूफ़ी सी है… गुज़र गए वक़्त को यूँ ढूँढना नादानी ही है… मगर दर्द में कमी के लिए इस बेवकूफी को अल्फाज़ देना अकलमंदी भी है इसलिए बुन दी अपनी बेवकूफी लफ़्ज़ों में…
कहाँ है वो हिंदुस्तान
जिसकी याद आती है
वो बचपन जो बन गया दास्तान
उसकी याद आती है
एक पापा थे, एक बेटी थी
दो तकिये थे, कुछ कहानियां थी
कहानियों में नसीहतें थीं
राह-ए -हयात की निशानियाँ थीं
अलग सा था वो अंदाज़-ए -बयां
जिसकी याद आती है
जो मींचलीं उन्होंने हमेशा के लिए,
ढूँढती हूँ वो आँखें,
अधूरी सी लगती है दिल्ली अब,
टूटती ही नहीं यादों की सलाखें,
तुम्हारी डांट और तुम्हारी मुस्कान
सबकी याद आती है
चेहरे बदल गए हैं,
महफिलें बदल गयीं हैं
सड़कें तो आज भी वहीँ हैं,
बस मंजिलें बदल गयी हैं,
कहाँ गयी वो माई की दुकान,
उसकी याद आती है
वो हिंदुस्तान कहाँ है,
जहाँ पापा मिल जाएँ
जहाँ मेरी यादों की तस्वीरों को
ज़िन्दगी मिल जाए,
सीने में है जो हिंदुस्तान,
उसकी याद आती है
टिप्पणियाँ
पितृदेवो भवः
वसुधैव कुटुम्बकम
दो तकिये थे, कुछ कहानियां थी
कहानियों में नसीहतें थीं
यह एक मीठा हिंदुस्तान है जो आज भी आपके पास है. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.
संजोये रखना....
अनु
kahte the teri rah men
nazaron ko ham bichhayenge
chahe kahin bhi tum raho
tum ko na bhul payenge
shandar
thanks
http://drivingwithpen.blogspot.in/
दो तकिये थे, कुछ कहानियां थी
कहानियों में नसीहतें थीं
मन को छूते शब्द ... यह खोज निरंतर जारी है ...
महफिलें बदल गयीं हैं
सड़कें तो आज भी वहीँ हैं,
बस मंजिलें बदल गयी हैं,
कहाँ गयी वो माई की दुकान,
उसकी याद आती है
....यादों के झरोखे से झांकती बहुत मर्मस्पर्शी रचना...
यादे वहीं है
सीधी सादी दिल से निकली
दिल को कचोटती हुई.
आप के दिल्ली आने का मुझे पता ही नहीं चला.
मेरा ब्लॉग भी आपको याद करता रहता है.