दिल भी कमाल करता है,
जब खाली-खाली होता है, भर आता है
Beginning
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One more door to let thoughts find their way in and out! Another way to share and improve what we think, believe and live!! An opportunity to explore ourselves and get familiar with our environment!!! A new beginning :-)
बहुत सुसंगत शब्द नहीं है मेरे पास पर कहना चाहती हूँ.... अगर नहीं कहूँगी तो आँसू नहीं थमेंगे ... इंसानों की यह भद्दी तस्वीर पहले भी देखी है, औरत की आबरू लुटते पहले भी देखी है, आज फिर दिल क्यूँ टूट रहा है, जब इंसानियत की अर्थी पहले भी देखी है? आदमी की ताकत और हैसियत औरत की योनि में गिरती पहले भी देखी है, औरत भी औरत को सताती, कुचलती, और हराती पहले भी देखी है! अभागी लाशों पर राजनीति, और बलात्कारियों को शह पहले भी देखी है, आज फिर दिल क्यूँ टूट रहा है, जब हैवानियत की जय-जयकार पहले भी देखी है! काश मैं उन बहनों से मिल सकती, उन्हें गले लगा के रो सकती, उन्हें कह सकती के: प्यारी बहन, याद रख तेरी आबरू तेरे जिस्म से बहुत गहरी है, सभ्य तुझे उसी इज़्ज़त से देखेंगे, जैसे पहले भी देखा है, तू फिर आँख मिलाएगी इस समाज से, जिसकी वहशी आँखों में तूने पहले भी देखा है! दोस्तों, कब तक सहेंगे हम ये सब, कब तक कहेंगे, यह हालत तो पहले भी देखी है, हाँ, बलात्कार को जंग का हथियार पहले भी देखा है, मगर हमने अपनी एकता ताकत भी तो पहले भी देखी है! आओ, मिल जाएं हम सब, फिर लाएं वही एकता, जो हमने पहले भी देखी ह
मेरे राज़-ए -दिल सेहरा-ए -ज़िन्दगी में महफूज़ रहे, मैं रेत पे लिखती रही, हवाएं मिटाती रहीं। कोई समझे भी क्यों मेरे दिल की बात, मैं ही तो हमेशा हसरतें-ए -दिल सबसे छिपाती रही। हर बात का एक क़द होता है, बौनी बात छिपाती रही, ऊँची बताती रही। के कह भी दूँ और समझ भी न आये, कई बातें यूँ शायरी में सजाती रही। एक आध राज़ इतने पेचीदा रहे, के खुद से भी कहने से हिचकिचाती रही।
ये कविता उन करोड़ों लोगों के लिए लिखी है, जो दिन प्रति दिन अपने पे किये अत्याचारों या उनके ज़ख्मों को जी रहे हैं. ये लोग रोज़मर्रा ज़िन्दगी में दिखते तो हैं पर दिखते नहीं.... आज भी यौन शोषण परदे के पीछे रहता है, गरीब की बेकद्री को ज़िन्दगी का एक हिस्सा समझा जाता है... जात-पात के नाम पर कभी सत्ता के नाम पर कभी विद्रोह के नाम पर हर रोज़ सैंकड़ों मर रहे हैं, औरतें विधवा हो रही हैं, बच्चे यतीम हो रहे हैं... जब तक हम ये सोचेंगे की हाल इतना भी बुरा नहीं है तब तक कुछ करने के लिए जज़्बा नहीं जगेगा... ज़ख़्मी हूँ, बीमार हूँ मैं, अपने ही अंशों की बदकारियों की शिकार हूँ मैं गरिमा, गैरत, इज्ज़त, आबरू और हक़ है मेरी पहचान मगर हर वार कमज़ोर के अधिकार पर ज़ख़्मी करता है मेरी पहचान इंसान के इंसान बनने का एक लम्बा इंतज़ार हूँ मैं ऐ औरत, निंदा तेरा गहना, बलात्कार है तेरा तोफहा, अक्सर दिन दहाड़े, होती है तेरी हस्ती तबाह कभी लगता है मैं, मैं नहीं एक बेरहम बाज़ार हूँ मैं मुफ़लिस, चाहे आदमी हो या औरत जानवर से भी गयी गुज़री ह
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