दिल्ली की हुड़क

आज हिंदुस्तान मेरे घर आया,
दिल्ली की खुशबु भी साथ लाया,
इस immigrant की ज़िन्दगी में ऐसा लम्हा,
कभी-कभी ही हाथ आया।  
आज हिंदुस्तान मेरे घर आया। 

फिर वही यादें, वही बातें,
ओड़िसा के गंजाम का खाना,
महाराष्ट्र के गडचिरोली के इलाके,
वो गाड़ी में हलके से गुनगुनाना,
धीरे-धीरे सारे देश का चक्कर लगाया।

उसने कहा दिल्ली का विकास पुरी,
मैं पहुँच गयी पहाड़ गंज की दिल्ली,
दिल लगा छलाँगे मारने,
मगर फिर कुछ सोच, कर ली  तसल्ली।  
आज मोहब्बत-ए-वतन ने फिर आज़माया।  

कोशिश ख़ूब करी दिल बहलाने की,
न गोल गप्पों में ज़ायक़ा, न मेहँदी में वो रंग,
बस अपनी साड़ी के डोरे से उड़ाती रही,
कभी तो दिल्ली उतरेगी मेरी पतंग।  
फिर एक टीस उठी, फिर जी घर को ललचाया।  

माज़ी के किस्से,  कल के ख़्वाब,
फिर से मिलने के वादे ,
उनकी मुस्कुराहटों से फिर 
वतन की मट्टी को चखने के इरादे!
दिल्ली की हुड़क ने फिर ज़ोर लगाया ।

आज हिंदुस्तान मेरे घर आया.... 

 

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