ग़म के डब्बे
अलग-अलग डब्बों में,
ग़मों को ढक्कन लगा के बंद कर दिया है।
और उन डब्बों को दिल के किचन में,
करीने से सजा के रख दिया है।
हर डब्बे के ग़म का
ज़ायका ज़रा मुख़्तलिफ़ है।
कोई ग़म बड़ा तीखा है,
महसूस करते ही
दिल सी-सी करने लगता है,
लोगों की तीख़ी बातों से बना है ये,
आँखों में आंसूं उतर आते हैं,
उस डब्बे को तो खोलते ही,
बंद करना पड़ता है!
एक डब्बे का ढक्कन
पूरा बंद ही नहीं होता,
रोज़-रोज़ की
खिच -खिच से बनता है
ये वाला ग़म।
इस ग़म की गंध से,
दिल तक़रीबन रोज़ ही
भरा रहता है,
शायद दिल को उसकी
आदत हो गयी है।
एक और डब्बा है,
मीठे दर्द से बना ग़म.
यह सुनहरी यादों से बना है,
उन लम्हों से बना है जो शायद
कभी लौट के नहीं आएंगे,
यह वाला डब्बा
अक्सर खोल लिया करती हूँ,
गीली ऑंखें मुस्कुराने लगती हैं,
मेरी जड़ें, मेरी हस्ती को बुलाने लगाती हैं,
मगर फिर ज़िन्दगी आवाज़ देती है,
मुझे वापस आज में बुला लेती है,
और मैं वो डब्बा बंद करके
वहीँ करीने से सजा देती हूँ।
टिप्पणियाँ
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कोरोना को घर में लॉकडाउन होकर ही हराया जा सकता है इसलिए आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'