बेबसी


ये कतई ज़रूरी नहीं के,
मेरी नज़र जो देख रही है, तुझे दिखाई दे,
मगर अब भी गर राबता है मुझसे तो,
मेरी आखों में जो डर है, वो तो तुझे दिखाई दे.

मज़हब में खुदा बड़ा है या इमारत?
एहम वो है जो न आँख से दिखाई दे,
खुदा में अमल बड़ा है या इबादत?
मेरे अज़ीज़, जो ज़रूरी है चीज़, काश, वो तुझे दिखाई दे।

वादी में गुलों के पीछे हैं हज़ारों कैदखाने,
कैसे ये नाइंसाफी न तुझे दिखाई दे?
क्या माँओं की गुज़ारिश न तुझे सुनाई दे,
क्यों बच्चों की बेबसी न तुझे दिखाई दे? 

गुफ्तुगू कहीं खो गयी, दलीलें ही रह गयी हैं,
बातचीत का खाली खाता, क्या किसी को दिखाई दे?
क्यों हिन्दुस्तानियत की आवाज़ बैठ रही है,
क्या वजह किसी को न दिखाई दे?  

तड़पती हूँ मादर-ए -वतन के लिए,
वापसी की कोई राह न दिखाई दे,
एक अदनी सी कलम और चार बातें,
दिल में बस बेबस मोहब्बत-ए -सरज़मीं दिखाई दे! 




टिप्पणियाँ

Shah Nawaz ने कहा…
वाआअह, क्या खूब कहा....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-09-2019) को     "बदल गया है काल"  (चर्चा अंक- 3468)   पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह बेबसी बहुत दर्दीली है जो रह-रहकर ख़ून के आँसू बहाती है । वापसी की कोई-न-कोई राह होनी ही चाहिए ।
Anil Shrivastava ने कहा…
परदेस में रहकर भी अपने देश और उसके लोगो की फ़िक्र और उनसे जुड़ने की पहल अद्भुत है . और भी अनेक भाव है इस कविता में जो अनेको बार पढ़ने के बाद धीरे धीरे सामने आएँगे . इस कृति हेतु आपका धन्यवाद और अभिनन्दन

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