राज़-ए -दिल

मेरे राज़-ए -दिल सेहरा-ए -ज़िन्दगी में महफूज़ रहे,
मैं रेत पे लिखती रही, हवाएं मिटाती रहीं। 

कोई समझे भी क्यों मेरे दिल की बात,
मैं ही तो हमेशा हसरतें-ए -दिल सबसे छिपाती रही।

हर बात का एक क़द होता है,
बौनी बात छिपाती रही, ऊँची बताती रही।   

के कह भी दूँ और समझ भी न आये,
कई बातें यूँ शायरी में सजाती रही।  

एक आध राज़ इतने पेचीदा रहे,
के खुद से भी कहने से हिचकिचाती रही। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अब बस हुआ!!

वसुधैव कुटुम्बकम्