कुदरत के सलीके
बदल और नदी अच्छे लगते हैं,
अपनी धुन में चलते हैं, मगर
अपनी मंज़िल नहीं हैं भूलते।
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बाग़ में पेड़ अच्छे लगते हैं,
मस्त हवा में झूमते हैं, मगर
अपनी जड़ों से हैं जुड़े रहते।
चीं-चीं करते पंछी अच्छे लगते हैं,
सारे एहसास चहचहाते हैं, मगर
एक दूसरे से मिलके रहते।
घांस में ये जुगनू अच्छे लगते हैं,
स्याह अंधेरों में घूमते हैं, मगर
बूँद-बूँद रौशनी बांटते फिरते।
यह बारिश के छींटे अच्छे लगते हैं,
बादलों की उँचाईओं में रहते हैं, मगर
प्यास बुझाने ज़मी पे बरसते।
काश हम भी सीख जाते,
कुदरत के सलीके,
खुद के लिए नहीं, औरों के लिए जीते।
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