सीरिया!
इंसानियत की यह हालत नहीं सही जाती,
अलेप्पो से आती चीखें नहीं सुनी जाती,
बच्चों की बिलखती तस्वीरें देखी नहीं जाती,
मुझ से होश की ज़िन्दगी जी नहीं जाती,
मज़हबी दायरों में दीन मिलता नहीं ,
सियासतदानों से रहम मिलता नहीं ,
दर-दर ढूँढ़ते हैं, हरम मिलता नहीं ,
इन बेबसों को अक्सर करम मिलता नहीं
लिखा कई बार पहले भी इस बारे,
सब के सब लफ्ज़ हैं हारे,
बड़ी हैं लहरें, दूर हैं किनारे,
लाडली, आज तेरे सारे हमदर्द हैं बेचारे!
इंसानियत का दिल कब तक देह्लेगा?
ये जहाँ फेसबुक से कब तक बहलेगा?
यह ज़ुल्म कब तक चलेगा?
सीरिया, तेरा परचम कब तक जलेगा?
मुझे सेल्फी/फेसबुक में रहने दो,
मसरूफियत का बहाना बनाने दो,
अपनी खुदगर्ज़ी में रमने दो,
मुझे बस ऑंखें मीचे रहने दो
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