कुछ सवाल

सीरिया, इराक हो या फिलिस्तीन का मामला, या फिर कश्मीर का मसला हो, सालों से लोग बस तड़प रहें हैं. छोटे-छोटे बच्चे ज़ुल्म और जंग में बड़े हो रहे हैं। कैसा बचपना और कैसा भविष्य? कुछ बच्चे अब जवान हो गए हैं. क्या सोचते होंगे यह दुनिया के बारे में? अब तो यह जानते होंगे के इन्हें अपने अधिकार नहीं मिले, यह जानते होंगे के जहाँ बाक़ी बच्चे अमन और शांति के बीच स्कूल जाते हैं, बागों में खेलते हैं, दलेरी से किसी से भी मिलते हैं वहां ये और इनके परिवार के लोग रोज़-रोज़ मर मर के जीते हैं. इनमें  से कितनो ने अपने बाबा को क़त्ल होते देखा होगा, कितनो ने माँ की आबरू को उजड़ते देखा होगा. इनमें से कितने दुखी होते होंगे, या कौन-कौन गुस्से से भर जाते होंगे? इन देशों की सरकारें इन बच्चों और जवानों के लिए क्या कर रही हैं?

और औरतों  की तो क्या बात की जाए...! इनके दुखों की तो कोई गिनती ही नहीं है। कभी घर से बेघर, कभी पति के होते पति से दूर या फिर विधवा का जीवन, बच्चों और बुज़र्गों का पालन-पोषण, कभी मानसिक शोषण, कभी बलात्कार,  कभी भुकमरी और कभी एक ही औरत को ये सब बर्दाश्त करना पड़ता है। न जाने किस-किस तरह के बलिदान करने पड़ते हैं। अक्सर यह सब ख़ामोशी से सहना पड़ता है क्यूंकी ज़बान खोलने की सज़ा अलग से मिलती है। सच तो यह की एक औरत की ज़िन्दगी कहीं भी क्यों न हो, आसान नहीं होती मगर हिंसक संघर्ष में औरतें तो जैसे इस दुनिया में नरक भोगती हैं। 

जब कभी भी इन जगहों के बारे में पड़ती या सुनती हूँ, दिल सवालों से भर आता है।  मगर सिर्फ सवालों से किसका पेट भरता है? काश हम इन लोगों की लिए कुछ कर पायें! पर हमें नारों और बातों में मज़ा आता है, बैठे-बैठे ऊँगली उठाने में मज़ा आता है... अगर हमारी सोच किसी नहीं मिलती तो उन्हें ज़लील करने में मज़ा आता है... कुछ करने लिए साथ चलना पड़ेगा, एक दुसरे को सुनना पड़ेगा, एक दूसरे का साथ देना पड़ेगा... खाकी निक्करधारी का भी आदर करना पड़ेगा और सफ़ेद टोपी वाले की भी इज़्ज़त करनी पड़ेगी... शोषित औरत में माँ ढूंढ़नी होगी और पराये बच्चे में में अपनापन पाना होगा... उफ़... बड़ा मुश्किल है ये सब। किसके पास वक़्त इस सब के लिए? अजी छोड़ें ये सब, फिर ढूंढे कोई मुद्दा एक दुसरे की बेइज़्ज़ती करने का, ऊँगली उठाने का... ये लोग हर रोज़ मर रहें तो मरा करें...! 

यह कुछ सवाल उससे हैं जो ऊपर से सब देखता है, कहीं दुआ सुनता है मगर कहीं मजबूर सा नज़र आता है.... 


क्यों यह मसला सुलझता नहीं है?
क्या कोई तरीका नहीं है?
क्या तेरा दिल पिघलता नहीं है?
http://www.un.org/apps/news/story.asp?NewsID=48341#.Vu8qLMcaxng

पिघलता है तो क्यूँ कुछ बदलता नहीं है?
या फिर कोई तेरी सुनता नहीं है?
बन्दुक छोड़, इनका हाथ दुआ में क्यों उठता नहीं है?
http://www.un.org/apps/news/story.asp?NewsID=48341#.Vu8qLMcaxng

क्यों इनका सर शर्म से झुकता नहीं है?
अब शायद हर कोई तुझसे डरता नहीं है.
तू खुद ही कुछ क्यूँ करता नहीं है?
क्यों लोगों को हमदर्दी से भरता नहीं है?
क्यों बातचीत से मसला सुलझता नहीं है? 
क्यों अमन से नाता इनका जुड़ता नहीं है?
http://www.cbc.ca/radio/thecurrent/the-current-for-june-18-2015-1.3118206/lifeline-syria-aims-to-bring-1-000-refugees-to-toronto-1.3118254


इन बागों में क्यों गुल-ए-उम्मीद खिलता नहीं है?
क्यों बचपन को खिलने मौका मिलता नहीं है?
http://worldnewsnetwork.co.in/the-pain-of-dardpora-kashmiri-half-widows-living-in-a-state-of-limbo/
क्यों मांओं का आँचल खिलखिलाता नहीं है?
मानवाधिकारों  की जैसे कोई मान्यता ही नहीं है!
प्यार काफ़ी है, कोई क्यों समझता नहीं है?

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