संदेश

जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जानती नहीं...

चित्र
सोचने बैठो तो ज़हन सवालों से भर जाता है। बात पे बात निकलती है, कभी खुद से तो कभी खुदा से उलझ जाती हूँ… शायद इसी को बड़ा होना कहते हैं। ये रचना लिखती रहती तो लिखती ही रहती क्यूंकि एक बात तो जानती हूँ के बहोत कुछ है जो मैं नहीं जानती :-)  तेरा नाम, पता, शक्ल कुछ भी तो ठीक से नहीं जानती , मगर इतने क़रीब है तू दिल के, कैसे कह दूँ के तुझे नहीं जानती  कहते हैं कई रास्ते तुझ तक पहुँचते हैं, कैसे चलूँ इन पे बिना घायल हुए नहीं जानती  यह ज़िन्दगी तेरी नियामत है, तेरी ही अमानत है, मानती हूँ, कैसे गुज़ार दूँ ज़िन्दगी के दिन-रात तेरे क़दमों पे नहीं जानती  मेरी हर मुश्किल कि जड़ मैं खुद हूँ, कोई शक़ नहीं, कैसे निजात पाऊँ इस 'मैं' से नहीं जानती हर एक में है तेरा अक्स, समझती हूँ, कैसे हर बार हर एक में देखूँ तुझे नहीं जानती बात करने से बात बढ़ती है, चुप रहने से तोहमत लगती है, आज भी लोगों को लुभाने के तरीके नहीं जानती जब एक से मोहब्बत दूसरे के इन्साफ में आड़े आये, तो निभाऊँ इंसानियत कैसे नहीं जानती  मोहब्बत से दिल भर

Allah Tero Naam Ishwar Tero Naam