क्यूँ

क्यूँ छोटे से फ़र्क  को अपनी दुनिया बना लेते हैं कई लोग?
इंसानियत के फ़र्ज़ को भुला के, क्यूँ नफ़रत की दुनिया बसा लेते हैं कई लोग?
मैं जहाँ से देखती हूँ, सब एक से दिखते  हैं,
क्यूँ खोकले ख्यालों-ओ-लफ्ज़ो की जंज़ीरो से अपनी दुनिया सजा लेते हैं कई लोग?

टिप्पणियाँ

Bharat Bhushan ने कहा…
आपने दुनिया को बहुत ऊँचाई से देखा है. हम उस ऊँचाई तक जा नहीं पाते, यही बात है. कविता दिल में उतर कर अपनी बात कहती है.
सच कहा, अपने भीतर की ९९ प्रतिशत समानता देखना भूल जाते हैं सब।

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