मौत
यह रचना बड़ी मुशकिल से लिख पाई और उससे भी ज्यादा मुश्किल था माकूल फोटो देखना और उन्हें यहाँ लगाना। मगर दुर्भाग्य से उन्हें ढूँढना बिलकुल भी मुश्किल नहीं था। गरीबों की बदकिस्मत जिंदगियों और उन जिंदगियों के बदकिस्मत अंजाम की कहानियाँ और तस्वीरें इन्टरनेट पर बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं, और क्यूँ न हो जब सैंकड़ों गरीब और कमज़ोर हर रोज़ उत्पीड़ित किये जातें हैं… गरीब पर ज़ुल्म दुनिया में हर जगह पाया जाता है और अगर इस दौरान वो मर जाते हैं तो एक आंकड़ें में बदल दिए जाते हैं… और सही भी है एक नंबर के लिए अपराधबोध कम होता है… सब बड़ों की सहूलियत के लिए है… जो आँकड़ा बन के रह गए, वो भी मेरी तुम्हारी तरह ज़िन्दगानियाँ थीं, जिनकी मट्टी को मट्टी भी न मिल सकी, उनके जिस्मों में भी रवानियाँ थीं वो बच्चे जो कभी बड़े ही नहीं हुए, क्या वो इंसानियत की नहीं ज़िम्मेदारियाँ थीं? क्या कोई जवाबदारी है या नहीं हैवानियतों की जो कहानियाँ थीं? हाँ, जिए वो ग़रीबी में, मौत के बाद भी कमियाँ थीं, नाम ख़बरों में न आ सका, अखबारों में जगह की तंगियाँ थीं ऐसा अंजाम-ए-ज़िन्