ढक्कन :-)
यह रचना उन मुट्ठीभर प्रियजनों के लिए है जो अभी भी धर्म या जाती के नाम पर अपने आपको दूसरों से ऊँचा समझने की भूल करते हैं… मगर हम यह भी जानते हैं की रूठ कर तो कोई भी खुश नहीं रहता… बस इन ढक्कनों का ढक्कन खोलने की ज़रुरत है :-)
वो एक ही है, कब से जानते हैं,
फिर भी झूटों उसे बांटते हैं,
ये सब जानते हैं
दिल दुखता है उसका,
जब लड़ते हैं नाम लेके उसका
हम सब ये जानते हैं
बेवकूफ़ी है, जहालत है,
वजह-ऐ-फर्क-ऐ-ईमान से जो बिगड़ी हालत है
आप भी जानते हैं
किसी दिन खुदा की जो सुन लेते,
दीन-ईमान में भाईचारा वो बुन लेते
हम ये मानते हैं
इनाम मुहब्बत-ओ-क़ुरबानी का बड़ा होता है,
सजा से मुआफी देने वाला बड़ा होता है,
बच्चे भी जानते हैं
थकते नहीं हैं, ऊँगली उठा उठाके?
खुद भी गिरते हैं, उन्हें गिरा गिराके,
क्यूँ नहीं मानते हैं?
दिल को भाते हैं बच्चे मिलके खेलते हुए,
सुलह की कसक उठती है उन्हें देखते हुए,
हम यह जानते हैं :-)
नाराज़गी का ढक्कन प्यार का बहाव रोक देता है
इंसान को उसका ही 'मैं' रोक देता है,
इंसान को उसका ही 'मैं' रोक देता है,
आखिर इस 'मैं' की क्यूँ मानते हैं?
आओ अपने सच और फ़र्ज़ पे ध्यान लगाएं,
रोज़-ब-रोज़ कुछ और उसके करीब आ जाएं,
यही चाहता है वो, जानते हैं?
टिप्पणियाँ
सुलह की कसक उठती है उन्हें देखते हुए,
हम सब जानते हैं :-)
नाराज़गी का ढक्कन मोहब्बत का बहाव रोक लेता है
और इंसान को उसका ही 'मैं' रोक देता है,
इस 'मैं' की क्यूँ मानते हैं?.....बहुत खूब !!
मेरे ब्लॉग पर भी आप सादर आमंत्रित हैं.
खुद भी गिरते हैं, उन्हें गिरा गिराके,
क्यूँ नहीं मानते हैं?
बेहतरीन।
सादर
धन्यवाद!
आपके पवित्र विचारों को सादर नमन.
खुद भी गिरते हैं, उन्हें गिरा गिराके,
क्यूँ नहीं मानते हैं?
बहुत सुन्दर...
सादर बधाई...