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तेरी रज़ा की बिनाह क्या है?

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क्यूँ यह मसला उलझता जाता है? तेरा रहम वक़्त-बे-वक़्त कहाँ गुम हो जाता है? जब झुलसते हैं आग में मकां, तब बरसता हुआ बादल क्यूँ नहीं आता है? ख़ाक में मिला दिया जाता है जब कोई मजबूर, काइनात को उस पे तरस क्यूँ नहीं आता है? http://islamizationwatch.blogspot.com/2010/04/bangladesh-tells-pakistan-apologise.html कभी ज़र्रे को सितारा बना देता है, कभी इंसान का मोल ज़र्रे से भी कम नज़र आता है कुछ इंसानों को फरिश्तों की फितरत बक्शी है और कुछ इंसानों में इंसान भी  नज़र  नहीं  आता है कहीं तेरी रौशनी भिगाती है सारा आलम फिर कुछ अंधेरों से तेरा नूर क्यूँ हार जाता है? जहाँ से मंजिल सीधे नज़र आने लगे वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है? तेरे होने पे या तेरी ताकत पे शक़ नहीं है कोई, तेरी रज़ा की बिनाह क्या है, ये समझ नहीं आता है  आजा या बुलाले के रूबरू गुफ्तुगू हो अब इशारों से इत्मिनान नहीं आता है

बार-बार वही बात, बात को हल्का कर देती है

एहसासों का समंदर उनसे संभाला ना जाएगा, इसलिए उसे दिल में संजोए रहते हैं  तूफान को लफ़्ज़ों की शकल देके, बूंद-बूंद रिसते रहते हैं होंठों को आराम दिया करते हैं, कलम को थकाए रहते हैं सीधी बात कहीं रिश्तों को घायल ना कर दे, शायरी में पनाह लिए रहते हैं कभी-कभी बार-बार वही बात, बात को हल्का कर देती है  अपनी दरख्वास्त को यूँ ख़ामोशी में डुबाए रहते हैं   आरज़ू है जिसकी दिल को, उसे दोनों हाथों से लुटाये रहते हैं 

चल उठ, ज़िन्दगी, चलते हैं! -2

चल उठ, ज़िन्दगी, चलते हैं! सिर्फ अपने लिए जीना अधूरा सा लगता है आ, तुझे जी भर के जीने, चलते हैं चाचा जी को अब दिखता नहीं, चल, उन्हें अखबार सुनाने, चलते हैं कामवाली की लड़की फटे कपडे पहने है, चल, उसे नई फ्राक दिलाने, चलते हैं पड़ोस की ताई का कोई नहीं रहा अब, चल, उनको हंसाने, चलते हैं सामने की सड़क पे वो अक्सर भूखा सोता है, चल, उसे खाना खिलाने, चलते हैं बड़े दिन हुए माँ को कुछ मीठा खिलाये, चल, हलवा बनाने, चलते हैं लगता है, शिकवा दूर नहीं हुआ उनका, चल, भाभी को मनाने, चलते हैं बच्चों से खेले बहुत वक़्त हुआ, चल, दिल बहलाने, चलते हैं चिंता-परेशानी बहुत हुआ, चल, कोई सपना सजाने, चलते हैं वक़्त आने पे अलविदा भी कह देंगे तुझे, फिलहाल, पल पल को जीने, चलते हैं

चल उठ, ज़िन्दगी, चलते हैं

कभी-कभी ज़िन्दगी थम सी जाती है, ऐसी जगह ले आ जाती है जहाँ हम रोज़मर्रा के कामों इतना मशगूल हो जातें हैं की आगे बढ़ना भूल सा जाते हैं. वही रोज़ खाना पकाना, बच्चों को  पढ़ाना , या दफ्तर का काम, बस यही रह जाता है... हम थक से जातें हैं... बहुत कुछ करना तो चाहते हैं, पर कुछ सूझता नहीं... भूल जातें हैं की शायद हम भी किसी गरीब या अनाथ बच्चे की पढाई का खर्च उठा सकते हैं, या किसी निरक्षर को पड़ना सिखा सकते हैं, या फिर पड़ोस में रहने वाले बुज़ुर्ग को हंसा सकते हैं.... कभी-कभी तो घर में एक साथ रहने वालों की दिल की ख़ुशी क्या है, यह जानने का भी वक़्त नहीं मिलता, उसे पूरा करना तो दूर की बात है... पर हममें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो ना जाने कितनी भी दिक्कतें हों, कितनी भी थकावट हो, अपने आपको समेटते हैं और ज़िन्दगी से कहतें हैं:  चल उठ, ज़िन्दगी चलते हैं, अगले मुकाम की तरफ, चलते हैं थके थके ही सही, आगे बड़ते रहते हैं, चाहे धीरे धीरे ही, कदम बढ़ाते रहते हैं  कब तक थमे रहें यूँ ही, चल, चलते हैं  जो निकल गए आगे, निकलने दे, जो आ रहें हैं पीछे, उन्हें आने दे, हम अपनी रफ़्तार पे चले

छोटे-छोटे क़दमों का रिवाज़

उस बयाबाँ के पीछे एक बगीचा था, ये नहीं पता था दरख्तों के उस झुण्ड के पीछे गुलों का गलीचा था, ये नहीं पता था  डर के मुड़ जाया करती थी जंगल से घबराया करती थी, डर को भी डराने एक तरीका था ये नहीं पता था फिर छोटे-छोटे क़दमों का सीखा रिवाज़ नया, एक नई पगडण्डी का आगाज़ हुआ, हर कदम डर को हौसले में बदल सकता था ये नहीं पता था   अब कोई बयाबाँ कभी जो दिल जो डराता है, हौसले को सिर्फ बगीचा ही नज़र आता है, हौसला अपने दिल में ही कहीं छिपा था, यह नहीं पता था

हर इनकार ईमान हो जाता है

दिल टूटता तो है, पर टूट के और बड़ा हो जाता है,  हर ठोकर पर आह तो निकलती है , पर अगला कदम कुछ और होशिआर हो जाता है  हमले का मकसद कुछ भी क्यूँ न हो, हर हमले से हौसला कुछ और जवाँ हो जाता है  राहेमंज़िल कितनी भी लम्बी हो, इरादा पक्का हो तो सफ़र आसां हो जाता है  कैद-खाना जिस्म रोक सकता है, ख्याल सैलाखें तोड़ उड़न छू हो जाता है   फज़ल उसका जब सेहरा को समंदर करता है  हर इनकार ईमान हो जाता है 

जज़्बात कुछ यूँ बयां होते हैं...

कभी कह के, कभी लिख के, कभी आँखों से बयां होते हैं कभी आंसूं, कभी तब्बसुम, कभी स्याही से बयां होते हैं  नहीं  शहूर इन अल्हड़ जज़बातों को, पर्दे को हवा कर के, बयां होते हैं कभी बेबाक हैं, कभी शर्मीले से, कभी इतराते हुए बयां होते हैं  कभी शीशे में उतरते नज़र आते हैं, कभी धुंध-ओ-धुंए में बयां होते हैं  कभी तीरंदाजी करते हैं, कभी मल्ल्हम लगाते हैं, हर अंदाज़ में बयां होते हैं  दिल में छुपे रहते हैं तो गुबार बन जातें हैं, राहत-ऐ-रूह है जब बयां होते हैं  बड़ी वफ़ा से साथ निभाते हैं ज़िन्दगी का, आखरी सांस तक बयां होते हैं 

इस बार दिवाली तू करना आलोकित हर मन

सभी को दीपावली की शुभकामनायें! हर साल दिवाली करती है घर आँगन रौशन   इस बार दिवाली तू करना     आलोकित हर मन    टिमटिमाते दियों से दूर हो हर अँधियारा  दमकें जीवन पथ  जगमगाए जग सारा ऐ  दिवाली, तेरी रौशनी कोई भेद न करे, करे रौशन बंगले को और  झोपड़ी को रोशन करे  तेरी मिठाई से  मीठी हो जाए हर जुबां, सौहार्द और प्रेम से भर दे हमारी हर शाम ओ सुबह