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अरुंधती जी, और सरहदें?

अरुंधती जी की किताब ने बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं, बहोतों का दिल दुखाया, कुछ को खुश भी किया. मगर क्या सचमुच उन्होंने कश्मीर मसले का कोई ठोस समाधान दिया?  इस सारे मामले ने मुझे उन दिनों की याद दिलाई जब मैं श्रीनगर के लोगों से उनकी समस्याओं के बारे में जानकारी ले रही थी. वहां एक आम इंसान को रोज़ की रोटी, सर के उप्पर छत, बच्चों के लिए आगे बड़ने के अवसर जैसी चीज़ों की फिक्र थी, बिलकुल वैसे ही जैसे एक आम इंसान को बिहार में या उत्तर प्रदेश में होती है. हाँ, कुछ और भी था हवा में, अलगाववाद जैसा... दिल भी दुखा. पर हर जगह नहीं.  एक आम कश्मीरी को उन्नति चाहिए, उसकी रोज़ की ज़रूरतें पूरी हों और ज़िन्दगी बिना डर के सफलता की डगर पर आगे बड़ सके, बस यही चाहिए, मेरे और आपकी तरह. और यह तो हम सभी जानते हैं की सफलता का कोई मज़हब नहीं हुआ करता... यह पंक्तियाँ दर्द से शुरू हो कर दुआ तक पहुँचीं... कब सरहदों से  फ़ायदा हुआ इस ज़मीं को? अभी भी दिल नहीं भरा, बार-बार बाँट कर इस ज़मीं को? सरहदें जैसे बदनुमा दाग़ हैं  इस ज़मीं के चेहरे पर, खुदगर्ज़ी के चाकू से फिर ज़ख़्मी ना कर

और मिल मुझसे, और मुझे दीवाना बना

और मिल मुझसे, और मुझे दीवाना बना गर दीवानगी ही चलन है इस ज़माने का, मुझे अपना दीवाना बना कूचा-ऐ-दिल में कुछ कोने ऐसे भी हैं, जहाँ तेरा आना जाना नहीं है, वहां भी तो अपना आशियाना बना कभी करीब आता है, कभी खो सा जाता है, हर पल का हो साथ, ऐसा दोस्ताना बना ठिकाना हर सफ़र का, तू बन जाए, हर नज़ारा नज़र का, तू बन जाए, तू मुझे इस कदर दीवाना बना

जी करता है

एक ज़िन्दगी में कई जिंदगियां जीने का जी करता है, इस ज़िन्दगी में कई जिंदगियां छूने का जी करता है हँसते हुओं के साथ हंस लूँ, रोते हुओं के साथ रो लूँ, जो कहना चाहते हैं, उनकी सुनु, जो प्यार भरे बोलों को तरसें, उनसे बोलूं एक पल में सैंकड़ों पलों को जगमगाने का जी करता है खुद से किये वादे निभाने हैं, हज़ारों आँखों में सपने सजाने हैं, उम्मीद के आफताब से बादल हटाने हैं, मिलके ढूँढने खुशियों के खज़ाने हैं, एक चिराग से कई चिराग जलाने का जी करता है एक ज़िन्दगी में कई जिंदगियां  जीने का जी करता है, इस ज़िन्दगी में कई जिंदगियां  छूने का जी करता है 

आजा

फज़ल, माफ़ी, पनाह, और तेरी महोब्बत है, पा लूँ इन्हें, बांटू इन्हें, ये ही तेरी खिदमत है, चाहता तो ज़ाहिर हो जाता, मज़हबी दायरे मिटा देता, मगर, गुपचुप रहना तेरी फितरत है सबसे बड़ा है, तू हर जगह है, पर तेरे नूर के बावजूद, अँधेरा कुछ जगह है क्यूँ कमज़ोर पड़ रही तेरी इबादत है? इन अंधेरों में भी तारे टिमटिमाते हैं, तेरे बन्दे तेरा पैगाम बाँटते नज़र आते हैं, उनके ज़रिये इस जहाँ में तेरी शिरकत है फिर भी, आबरू लुटती है, भूक नहीं मिटती है, आंसुओं का मोल नहीं, बचपन की बोली लगती है बड़ रही अंधेरों की हिमाकत है बहुत हुआ, अब आजा  आजा घरों में, दिलों में, आजा दुखिया माँ के आंसूओं के लिए, आजा बिलखते बच्चों के लिए, आजा बेघरों का घर बन के, आजा बुजुर्गों की दुआ बन के, आजा बीमारियों से जूझते ज़माने के लिए, आजा नशे में डूबे हुओं को बचाने के लिए, आजा खुनी जंगो में अमन बन के, आजा इस सेहरा में चमन बन के आजा आजा, मुस्कुराहटें बांटने, आजा छोटे-बड़े का भेद मिटाने, आजा आजा के ये वक़्त बदल जाए, आजा, आजा, के फिर से ना जाए, आजा   आजा के तेरी बहुत ज़रुरत है

बड़ी कमाल चीज़ हैं हमारी आँखें!

कितनी भी कोशिश करूँ, दूसरों की गलतियाँ ज़्यादा नज़र आतीं हैं और अपनी कम. अगर यूँ ही वक़्त बर्बाद करती रही तो एक दिन वक़्त ख़त्म ही हो जाएगा और जाने का वक़्त आ जाएगा, वक़्त रहते सुधर जाऊं तो अच्छा...  बड़ी कमाल चीज़ हैं हमारी आँखें, बक्श दें किसी को, बिलकुल नहीं, कुछ ज़रुरत से ज़्यादा देखती हैं, और कुछ बिलकुल नहीं, सड़क चलते, त्योरियां चड़ा लेती हैं, रास्ते का कूड़ा जब दिखता है, पर जो गन्दगी हम फैकें, उससे इन्हें कहाँ फर्क पड़ता है? हमारे कचरे में बदबू...? अजी, बिलकुल नहीं! ज़रा ज़रा सी गलतियां दिखती हैं सबकी, नज़र रहती हर कमजोरी पे उनकी कभी अपने गिरेबान में झांकें...?  अरे, बिलकुल नहीं! यह आधा अंधापन, अजीब किस्म का मर्ज़ है, दूसरों में बुराई देखना, यह समझें, इनका फ़र्ज़ है, इन आखों को समझाना आसान नहीं,  जी, बिलकुल नहीं! खुल जाएं ये  बंद होने से पहले, खुदा का नूर  ज़रा इन्हें छूले, वरना बहशत में दाखला...? ना, बिलकुल नहीं!

टूटे रिश्तों के टुकड़े

रिश्ते हंसातें हैं, यही दिल दुखाते भी हैं, कभी निभ जातें हैं आखरी सांस तक, कभी पल में चटकते भी हैं कभी जन्मों के, रस्मों के रिश्ते सवाल बन के रह जातें हैं, तो कहीं बेनामी, मुंहबोले रिश्ते, हर सवाल का जवाब बन जातें हैं रिश्ता रिश्तेदारों से नहीं, दिल से होता है, निबाह इनका एक अकेले से से नहीं मिल के होता है ढोओं ना रिश्तों को जी लो इन्हें , उधड़े जो ज़रा भी यह प्यारे रिश्ते, वक़्त रहते सी लो इन्हें रिश्ते टूट तो जातें हैं, पर कुछ टुकड़े दिल में छोड़ जातें हैं, कुछ लोग रिश्तों के मोहताज नहीं होते रहे ना रहे रिश्ता, वो दिल में रह जातें हैं

माफ़ी को पनपने क्यूँ नहीं देते?

गलती से फिर एक ब्लॉग  पढ़ा  जिसमें दुसरे समुदाय को नीचा दिखाने के लिए जानकारी दी गयी थी. जानकारी दिखाने का उद्देश्य भी पूरा होता नज़र आया... टिप्पणियों के रूप में दोनों समुदाय के लोगों ने एक दुसरे को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी....  दुखी मन में  कई सवाल उठे, जो यहाँ प्रस्तुत हैं.... इतनी नफरत  जाने कहाँ से लाते हैं? पता नहीं दूसरों को गिराते हैं, या खुद गिर जाते हैं? कहीं अपनी कमी छुपाने के लिए, दूसरों की कमी तो नहीं निकाला करते? या अपने डर भगाने के लिए, दूसरों को तो नहीं डराया करते? दूसरों के खोट निकालना  ज्ञान  है या मुर्खता? क्या इसी मुर्खता से अक्सर  पैदा नहीं होती है बर्बता?  ज़हर से भरी छींटा-कशी, ऐसे अलफ़ाज़ कहाँ से लाते हैं? इतनी कड़वाहट, हे इश्वर! मरने मारने का जज़्बा कहाँ से लाते हैं? कौन सा भगवान् है, जो खुश होता है यूँ? अगर दिल दुखता है उसका, तो खुदा चुप रहता है क्यूँ? माफ़ी को पनपने  क्यूँ नहीं देते? सौहार्द को दिल में धड़कने  क्यूँ नहीं देते? गले मिल जाओगे तो क्या चला जाएगा? नफरत का सिलसिला क्या यूँ ही चलता चला जाएगा...? 

थोड़ा सा बुद्धू है...

मैं कहती नहीं, फिर भी वो समझता है, पर दिखाता नहीं. की सब समझता है बड़ा प्यारा सा खेल है, आखों और मुस्कुराहटों का मेल है, चुप-चुप चलती जज़बातों की रेल है, जाने कैसे अनकहे एहसास समझता है? जितना बस में है, करता है, अपनों के लिए करता है, गैरों के लिए करता है, ऐसा इंसान कहाँ मिला करता है? जो हर किसी को अपना समझता है क्या क्या बताऊँ जो उसने दिया, बंद खिड़की खोल, मेरे सितारे का पता दिया ना जाने कब मुझे मुझसे मिला दिया, मुझसे ज़्यादा वो मुझको समझता है इतनी सहनशक्ति जाने कहाँ से लाता है, गुस्सा जेब में रख कर, हंसी बांटता फिरता है, खुद भी नहीं जानता की वो एक फ़रिश्ता है, थोड़ा सा बुद्धू है, खुद को मामूली इंसान समझता है