तेरी रज़ा की बिनाह क्या है?
क्यूँ यह मसला उलझता जाता है?
तेरा रहम वक़्त-बे-वक़्त कहाँ गुम हो जाता है?
जब झुलसते हैं आग में मकां,
तब बरसता हुआ बादल क्यूँ नहीं आता है?
ख़ाक में मिला दिया जाता है जब कोई मजबूर,
काइनात को उस पे तरस क्यूँ नहीं आता है?
http://islamizationwatch.blogspot.com/2010/04/bangladesh-tells-pakistan-apologise.html |
कभी ज़र्रे को सितारा बना देता है,
कभी इंसान का मोल ज़र्रे से भी कम नज़र आता है
कुछ इंसानों को फरिश्तों की फितरत बक्शी है
और कुछ इंसानों में इंसान भी नज़र नहीं आता है
कहीं तेरी रौशनी भिगाती है सारा आलम
फिर कुछ अंधेरों से तेरा नूर क्यूँ हार जाता है?
जहाँ से मंजिल सीधे नज़र आने लगे
वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है?
तेरे होने पे या तेरी ताकत पे शक़ नहीं है कोई,
तेरी रज़ा की बिनाह क्या है, ये समझ नहीं आता है
आजा या बुलाले के रूबरू गुफ्तुगू हो
अब इशारों से इत्मिनान नहीं आता है
टिप्पणियाँ
अब इशारों से इत्मिनान नहीं आता है
खुबसूरत गज़ल , मुबारक हो
वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है?
जीवन को कचोटता पर फिर भी होता हुआ एक सत्य।
अब इशारों से इत्मिनान नहीं आता है
... bahut sundar ... behatreen !!!
एक एक शेर बेहतरीन
वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है?
behad khoobsurat.....bohot khoob likha hai aapne, saara dard, saari khalish....bohot khoob
की समस्यायों से प्रश्न पूछती यह गज़ल दिल को छूने वाली है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार::पूर्णता
अब इशारों से इत्मिनान नहीं आता है
वाह! क्या बात कही है सच कभी कभी इंसान कितना बेबस हो जाता है शायद तब यही कहता है……………दिल की कसक का सुन्दर चित्रण्।
फिर कुछ अंधेरों से तेरा नूर क्यूँ हार जाता है?
bahut badhiyaa bahut badhiyaa
ये वाली पिछली वाली से बेहतर बहर में थी, अगली वाली तो बस समझिये एकदम निशाने पर ! लिखते रहिये ...
वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है?
यही तो होता है जीवन में ... तभी कहते हैं ... जिंदगी इम्तेहान लेती है ... अछा लिखा है बहुत ...
तब बरसता हुआ बादल क्यूँ नहीं आता है?...
दिल को छू लेनेवाला हरेक शेर.इंसानियत के दर्द को बहुत गहनता से महसूस करती भावपूर्ण अभिव्यक्ति .आभार
tumko bhi intezaar hai,humko bhee intezaar.
वहीँ अक्सर मोड़ क्यूँ आ जाता है?
bahut khoob.
ham ne khud hee apna anjaam bura chun liya hai, ooper wale ki naseehaton ko bhool ke.