ऐ इंसानियत, तुझे मेरी परवाह ही नहीं!
डेमोक्रेटिक रेपुब्लीक ऑफ़ कांगो में लगभग ५०० औरतों के साथ हुए बलात्कार की खबर ने मुझे दो महीने पहले 'युगांडा रेड क्रोस' के एक कार्यकर्ता से हुए एक वार्तालाप की याद दिला दी. उन्होंने बताया की वो उन लोगों के साथ काम करते हैं जो रवांडा में हो रहे अत्याचार से भाग कर युगांडा में शरण लेने की कोशिश करते हैं. कुछ लोगों को शरण मिलती है और कुछ को नहीं. जब एक सताई हुई महिला को सीमा पार करने की मंज़ूरी नहीं मिली तो वो बोली की वो जानती है की उसे रोज़-रोज़ के शोषण और बलात्कारों से कोई नहीं बचा सकता पर कम से कम उसे गर्भपात के लिए ही मदद मिल जाए. वो अपने दर्द और उसकी यादों को पालना नहीं चाहती थी....
इस दुनिया में बहुत सी ऐसी महिलायें हैं जो अगुवा कर ली जातीं हैं और गुलामी, शोषण, भूख और बीमारियों से भरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो जातीं हैं. रवांडा की उस बहन और दुनिया भर में उसके जैसी कई बहनों को समर्पित ये कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं...
रोती भी नहीं, चिल्लाती भी नहीं,
जानती है, कोई सुनेगा ही नहीं
सर पर छत, पेट भर खाना,
आदत भी नहीं, कोई आस भी नहीं
बारम्बार बलात्कार के अंधेरों में,
इंसान और हैवान में फर्क दिखता ही नहीं
हौसला बहुत है उसके पास,
पिटती है, नुचती है, टूटती ही नहीं
बच्चे, माँ-बाप, भाई-बहन,
जिंदा हैं या मर गए, कुछ पता ही नहीं
छीन लेती है साँसों को लूटेरों के बीजों से,
टूटे हुए दिल में, ममता के लिए जगह ही नहीं
बहुत दर्द है उसकी दस्ताने-ज़िन्दगी में,
कोई सुनने वाला ही नहीं
उठ कर, खड़ी होना चाहती है अपने पैरों पर,
कोई हाथ देने वाला भी नहीं
झुकी पलकों में आंसूं, कपड़ों में ढकें ज़ख्म जैसे कह रहे हों,
"ऐ इंसानियत, तुझे मेरी परवाह ही नहीं!"
इस दुनिया में बहुत सी ऐसी महिलायें हैं जो अगुवा कर ली जातीं हैं और गुलामी, शोषण, भूख और बीमारियों से भरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो जातीं हैं. रवांडा की उस बहन और दुनिया भर में उसके जैसी कई बहनों को समर्पित ये कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं...
रोती भी नहीं, चिल्लाती भी नहीं,
जानती है, कोई सुनेगा ही नहीं
सर पर छत, पेट भर खाना,
आदत भी नहीं, कोई आस भी नहीं
बारम्बार बलात्कार के अंधेरों में,
इंसान और हैवान में फर्क दिखता ही नहीं
हौसला बहुत है उसके पास,
पिटती है, नुचती है, टूटती ही नहीं
बच्चे, माँ-बाप, भाई-बहन,
जिंदा हैं या मर गए, कुछ पता ही नहीं
छीन लेती है साँसों को लूटेरों के बीजों से,
टूटे हुए दिल में, ममता के लिए जगह ही नहीं
बहुत दर्द है उसकी दस्ताने-ज़िन्दगी में,
कोई सुनने वाला ही नहीं
उठ कर, खड़ी होना चाहती है अपने पैरों पर,
कोई हाथ देने वाला भी नहीं
झुकी पलकों में आंसूं, कपड़ों में ढकें ज़ख्म जैसे कह रहे हों,
"ऐ इंसानियत, तुझे मेरी परवाह ही नहीं!"
टिप्पणियाँ
ग़रीब माओं शरीफ़ बहनों को अम्नो-इज़्ज़त की ज़िंदगी दे
जिन्हें अता की है तूने ताकत उन्हें हिदायत की रौशनी दे
सरों में क़िब्रो-ग़रूर क्यूँ है, दिलों के शीशे पे ज़ंग क्यूँ है
कोई तो हल कांगो का भी होगा...
नमस्कार !
लगता है , साक्षात् नर्क का दृश्य सामने है … उफ़्फ़ !
"ऐ इंसानियत, तुझे मेरी परवाह ही नहीं!"
बहुत वीभत्स परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण किया है आपने -
बच्चे, माँ-बाप, भाई-बहन,
जिंदा हैं या मर गए, कुछ पता ही नहीं
उठ कर, खड़ी होना चाहती है अपने पैरों पर,
कोई हाथ देने वाला भी नहीं
यत्र नारी पूज्यंते , रम्यंते तत्र देवः के सर्वथा विपरीत नारी की ऐसी दुर्दशा !!
हे भगवान ! सृष्टि अब तुम्हारे नियंत्रण में है भी अथवा नहीं ?!?
क्या इंसानियत सचमुच मर चुकी है ?
कहना पड़ेगा - " औरत के लिए अपना घर ही सुरक्षित जगह है ! "
- राजेन्द्र स्वर्णकार
कोई सुनने वाला ही नहीं
waha par dunia ki koie orgination manavadhikar ki baat nahi karti .
dunia kai manch par koie media nahi le jana chahata ???????
दिल में शोले भड़क जाते हैं ऐसा कुछ पढ़ कर.
"ऐ इंसानियत, तुझे मेरी परवाह ही नहीं!"
ओह ...बहुत मार्मिक ...मन भर आया ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/