अन्दर कहीं अभी भी बच्ची हूँ मैं

जानती हूँ की बड़ी हो गयी हूँ मैं,
लेकिन अन्दर कहीं, अभी भी बच्ची हूँ मैं

रात के अँधेरे से अभी भी डर जाती हूँ,
बच्चों के साथ मसकरी में सब भूल जाती हूँ,
पुराने दोस्तों के लिए आज भी मचलती हूँ मैं
अन्दर कहीं, अभी भी बच्ची हूँ मैं


बड़ो के जैसे बातें तो कर लेती हूँ, पर सब समझ नहीं पाती,
रात की नींद जिस गुस्से को भगा ना पाए, वो पचा नहीं पाती,
सुबह की ओस जहाँ मन का मैल धो दे, अभी भी उसी ज़मीन पे चलती हूँ मैं
अन्दर कहीं अभी भी बच्ची हूँ मैं 




http://vrinittogether.blogspot.com/2010/05/jaanti-hoon-ki-badi-ho-gayi-hoon-main.html

टिप्पणियाँ

बहुत ज़रूरी है भीतर के बच्चे का जीते रहना अगर इन्सान को जीना हो तो, अच्छा है कि आप ख़ुशक़िस्मत है
Udan Tashtari ने कहा…
यही भावना बनी रहे, शुभकामनाएँ.
Sunil Kumar ने कहा…
मन के बच्चे को बुढ़ापे तक साथ रखिये अच्छी रचना बधाई
Shah Nawaz ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Shah Nawaz ने कहा…
अंजना जी, बहुत ही अच्छी कविता लिखी है, लगता है दिल की गहराईयों से लिखी है....... खासतौर से :
जानती हूँ की बड़ी हो गयी हूँ मैं,
लेकिन अन्दर कहीं, अभी भी बच्ची हूँ मैं

पढ़ तो मैंने कल ही ली थी, लेकिन अस्वस्थ होने के कारण सुबह-सुबह ही अस्पताल जाना था, इसलिए कमेन्ट नहीं कर पाया था. :-)

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