लफ्ज़ बुनने लगती हूँ
जब जज़्बात उमड़ने लगते हैं,
लफ्ज़ बुनने लगती हूँ
कभी मुस्कराहट की शकल बनाती हूँ,
कभी आसूओं के नमूने बुनने लगती हूँ
कभी कोई रंग हाथ आता है, कभी कोई,
रंगों का ताना-बाना बुनने लगती हूँ
यह जज्बातों का धागा तो ज़िन्दगी के साथ ही ख़त्म होगा,
कहीं फिर उलझ ना जाए, यही सोच लफ्ज़ बुनने लगती हूँ
लफ्ज़ बुनने लगती हूँ
कभी मुस्कराहट की शकल बनाती हूँ,
कभी आसूओं के नमूने बुनने लगती हूँ
कभी कोई रंग हाथ आता है, कभी कोई,
रंगों का ताना-बाना बुनने लगती हूँ
यह जज्बातों का धागा तो ज़िन्दगी के साथ ही ख़त्म होगा,
कहीं फिर उलझ ना जाए, यही सोच लफ्ज़ बुनने लगती हूँ
टिप्पणियाँ
कहीं उलझ ना जाए, यही सोच के लफ्ज़ बुनने लगती हूँ.......
बेहतरीन....
ma'am thanks for your comment on my latest entry. It was an accident... i was trying to save "kuch jeet likhoon., yaa haar likhoon.." I have deleted the poem from my blog.
would love to see your feedback on my own poems
@ http://poetchintz.blogspot.com
regards,
shailendra
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'पाखी की दुनिया' में अब सी-प्लेन में घूमने की तैयारी...
कहीं फिर उलझ ना जाए, यही सोच लफ्ज़ बुनने लगती हूँ
bunate rahie... warna itanee achchhee aur panktiyan phir kaise padhane miltee rahengee????
लफ्ज़ बुनने लगती हूँ
aisa hi sayad har Kaviyon ke saath hota hai..:)
sundar prastuti......isliye follow karna para..aage se barabar aaunga..:)