उड़ने के लिए पंख कैसे फैलाऊं?

कदम क्यूँ ना ठिठक जाएं,
जब छोटी-छोटी ख़ताओं की बड़ी-बड़ी सजाएं हों?

साँसे क्यूँ ना भारी हो जाएं,
जब धुंए से भरी हवाएं हों?

उड़ने के लिए पंख कैसे फैलाऊं,
जब कैंचिओं से भरी फिजाएं हों?

उस अंजुमन में मेरे मर्ज़ का इलाज कैसे मिले,
जहाँ ज़हर से भुजी दवाएं हों?

वो साथ रह कर भी कैसे साथ निभा पाता,
जब वफ़ा के जामे में सिर्फ जफ़ाएं हों?

टिप्पणियाँ

Asha Joglekar ने कहा…
बहुत सुंदर, सरल, जिंदगी को कुछ सवाल करती हुई कविता ।
mai... ratnakar ने कहा…
behad sahee aur saral andaaz men phalsapha pesh kiya gaya hai
badhai

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