नाम सुन कर, मज़हब जानने की कोशिश क्यों किया करते हैं?

नाम सुन कर, मज़हब जानने की कोशिश क्यों किया करते हैं?
दिल परख़ कर, इंसान को जानना ज़रूरी है,
लिफ़ाफे में नहीं, ख़त में पैगाम हुआ करता है,
किताब-ए-दिल के मजमून को समझना ज़रूरी है, 

टिप्पणियाँ

रंजन ने कहा…
बहुत खुब...

on a lighter side..

पर उनका करें जो कहते है...

"मजमूँ भांप जाते है.. लिफाफा देखकर..." :)
रंजन ने कहा…
अब अगर ये केवल हिंदी का ब्लॉग है तो चाहें...इसे यहाँ पंजीकृत कर दें.. http://chitthajagat.in/

many people will read..
Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) ने कहा…
बहुत खूब कहा है की लिफाफा देख कर ख़त का मजमून भांप लेते हैं.... पर उनका कलाम दोहराने वाले यह नहीं समझते की उन्होंने यह नहीं कहा की जान लेते हैं... भांपने और जानने में बहुत फर्क होता है... हर लिफाफा खोलना जरूरी नहीं पर सिर्फ अंदाज़े पे लिफाफा फेंक देना, यह कहाँ की अकलमंदी है?

भाई, आपका फीडबैक सर-आँखों पर, बस ऐसे ही ज़र्रा-नवाजी किया कीजिए... शुक्रिया!

चिटठा-जगत में पंजीकृत कर दिया :-) :-)

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